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【सिद्धान्त-रिवाईजेशन # 12】'श्रीराधा प्राकट्योत्सव विशेष - 5/7'

【सिद्धान्त-रिवाईजेशन # 12】
'श्रीराधा प्राकट्योत्सव विशेष - 5/7'
♻ एक प्रेमी भक्त किस प्रकार अपने शरीर के एक-एक अवयव (पंचमहाभूत) को प्रेमास्पद भगवान् के लिए समर्पित करता है ::::: एक प्रेमी भक्त भगवान् से प्रार्थना करता है कि... मृत्यु के बाद, मेरे शरीर का,
• जल तत्व उस जल में जा मिले जिससे आप स्नान करते हों,
• तेज तत्व उस दर्पण में जा मिले जिसमें आप अपने माधुर्यमय चेहरा निहारते हों,
• आकाश तत्व उस आकाश में जा मिले जिसके नीचे अपनी प्रियतमा श्रीराधा व गोपियों के साथ रास-विहार करते हों,
• वायु तत्व उस वायुमंडल में जा मिले जहाँ श्री सखियाँ आप एवं स्वामिनी राधा रानी जी को पंखा झलते हों,
• भूमि तत्व उस भूमि से जा मिले जहाँ के पथ में विहार करते हुए आपके श्रीचरण पड़ते हों.

♻ श्रीराधा भक्तिस्वरूपा हैं, भक्ति का अधिकारी कौन है ::::: एक पतित से पतित तक से लेकर ब्रम्हा तक, प्रत्येक रागी-विरागी, ज्ञानी-अज्ञानी भक्तिमार्ग का अधिकारी है. चाहे वो पवित्र हो या अपवित्र हो. सदाचारी हो या दुराचारी हो. भक्ति सबको पवित्र करने वाली है और सबके लिए करतलगत है.
♻ क्या भक्तिमार्ग में जाति-पाति का विचार है क्या ::::: भक्ति जाति-पाति आदि किसी के अधीन नहीं है. हर व्यक्ति भक्ति कर सकता है और भक्ति प्राप्त कर सकता है. बाल्मीकि पूर्व में व्याध (बहेलिया) थे, विदुर का कुल क्या था, शबरी की कौन सी जाति थी, फिर भी वे भगवान् के कृपापात्र बने, भक्त बने और भक्ति प्राप्त की. सूरदास वेश्यागामी थे, सदन कसाई था. किन्तु इन्होंने प्रेम के बल से भगवान् को अपना बना लिया. वस्तुतः 'जाति पाति पूछे नहि कोई, हरि को भजे सो हरि का होई' (मानस).
♻ भक्तिमार्ग के साधक के लिए भगवान् का अत्यंत महत्वपूर्ण वचन क्या है ::::: साधक को यह ध्यान रखना चाहिए विश्वासपूर्वक कि 'जैसा, जिस भाव से और जितनी मात्रा में हम राधाकृष्ण की भक्ति करेंगे, वे भी वैसा ही, उसी भाव से और उतनी ही मात्रा में हमसे प्रेम करेंगे. गीता में यह भगवान् का ही वचन है - ये यथा माम् प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहं'. अब साधक जितना प्रेम भगवान् से पाना चाहे उतना उनसे कर ले. इसमें संशय नहीं होना चाहिए, उनको करना ही होगा, वो ना नहीं कर सकते.
♻ प्रेम मार्ग के साधक को प्रेम की कौन सी एक महत्वपूर्ण बात ध्यान में रखनी चाहिए ::::: यह कि प्रेम वही है जो छिन-छिन बढ़ता जाय, घटे नहीं. प्रेम के नष्ट होने का कारण हो, तब भी प्रेम में तनिक भी कमी ना हो पाए, विचलित न हो प्रेम, तब वह प्रेम है, नहीं तो धोखा है.
(साधना में लाभ हेतु)
★ सुश्री गोपिकेश्वरी देवी जी
★ श्री कृपालु भक्तिधारा प्रचार समिति

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