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वैष्णव

जीव दृष्टि से भगवत्स्वरूप का ही यथार्थ चिंतन असमर्थ है । जिस दिव्य स्थिति में रसमय सन्तों को भगवत और भक्त दर्शन अनुभूति होती है । वह स्थिति लिखित रस से बाह्य हम सब प्राणी समझ नहीँ सकते । 
वैष्णव , हम सभी यहाँ जड़ दृष्टि वैष्णव का दर्शन करेंगे । 
वास्तविक वैष्णव का अनुभव श्रीविष्णु स्वयं कर पाते है ,और जगत पालन रूपी सेवा में प्रति परमाणु जहाँ वह सेवित है । वहीँ वैष्णव रूपी इष्ट दर्शन उन्हें प्राप्त है । परस्पर इष्टता होती है , न हो तो मिलन अधूरा है । जीव अपनी ही भक्ति प्रेम को सत्य मानता है , ईश्वर स्वयं भक्ति की आह्लादिनी में नित्य प्राणित स्थिति है । भक्ति सुधा का नित्य आंतरिक और बाह्य रसास्वादन दिव्यतम पूर्ण रस स्वरूप का अनुभव है । भक्ति शब्द वहाँ निज स्वभाव का प्रेमानुभव ही है । हम प्रकृति पुरुष मिलन अथवा रसराज-महाभाव मिलन में प्रेम दर्शन ही नहीं स्वीकार सकते तब परस्पर भक्ति दर्शन वहाँ कैसे अनुभव हो । परन्तु सर्वता में कही कोई अनुभूति , कोई रस , कोई अमृतस्वप्न उनके स्वरूप और स्वभाव से अछूता नहीँ है । 
श्रीनारायण के समक्ष रावण भी है तो वह प्रमाणतः है पार्षद , तब वह है वैष्णव । 
मानस के अनुमोदन से भी श्रीराम को रावण के हृदय में सियाजु के प्रति कैसा भी भाव दर्शन होने पर हृदय पर प्रहार करते बन नही रहा उनसे । 
अर्थात वैष्णव कौन ??? 
उनकी दृष्टि से अनुभव हो तब कौन नहीं ... ??? 
अब ईश्वर के निज अनुभव के कितना निकट हमारा हृदय है यह यही सिद्ध कर देगा कौन वैष्णव नहीं , कोई माने न माने प्रति अणु , प्रति तत्व चेतन श्रीनारायण ही प्राणित है , सेवित है । तब मानने न मानने से होगा क्या ? सत्य में तो वहीं ही है ही । जड़ चिंतन से नहीं सत्य चिंतन से देखिये कौन वैष्णव नहीं है । कौन श्रीहरि का नहीं है । 
जयंत सा भ्रामक (नास्तिक) भी जो स्वयं प्रकट श्रीहरिहियवासिनी भक्तिमहारानी के प्रति अपराध कर चुका करुनासिन्धु की उदार दृष्टि में क्षम्य है । क्या आप श्रीविष्णु की करुणा उनकी पालनहार भावना से पृथक है , श्रीविष्णु की करुणा दृष्टि ही वैष्णव है । और समस्त के प्रति उनकी दृष्टि तो करूण ही है , समस्त ही भृम मय है । जगत में द्वन्द है , जगदीश में नहीं । 
पालनहार श्रीनारायण से अर्थ भौतिक जीवन के पालनहार रूप ही लिया जाता है । कि हम देहधारियों के पालक । ऐसा ही नहीं पालनहार का भाव "चेतना के पालनहार" । चेतना की विषमतम जड़ स्थितियों में भी उसमें चेतनत्व रहना यह पालनहार शक्ति है । ... सेवा आसान नहीं होती , भोगी जीव जब कुकर्म में लिप्त हो जड़ता में डूबा हो तब भी चेतन निःश्वास नहीं होता । घनघोर से घनघोर पाप के समय भी चेतना जीवन रस कहां से लाती है । जीव समझता है नारायण दाल-रोटी ही देने की शक्ति है । नर (जीव) स्थिति जिस समुद्र (सुधा) से प्राण बिंदु पी रही है , वह सुधानिधि नारायण है । जब तक चेतना का पृथक अस्तित्व है वह श्री नारायण की नित्य वस्तु है । और चेतना के प्रलय की स्थिति चेतना बिन्दु और श्रीनारायण का अभिन्न स्वरूप हो जाना ही है । तृषित ।।। जयजयश्रीश्यामाश्याम जी ।

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