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जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा राधारानी के विषय में प्रकाश डाला जा रहा है।

राधारानी कौन हैं, थोडा समझ लीजिये। आप लोगों ने भगवान का नाम तो सुना ही होगा। राधा तत्त्व से अधिक लोग परिचित नहीं हैं। भगवान के नाम से अधिक परिचित हैं और भगवान भी बहुत प्रकार के होते हैं। एक भगवान तो श्री कृष्ण हैं, उन भगवान से एक और भगवान प्रकट होते हैं, उनको कहते हैं- प्रथम पुरुष। प्रथम पुरुष भगवान श्री कृष्ण के अंश हैं, उनको महाविष्णु भी कहते हैं। अनंत कोटि ब्रह्माण्ड के निर्माण करने में पहला काम महाविष्णु का होता है। श्री कृष्ण सृष्टि वगैरह नहीं करते। सृष्टि वगैरह बहुत नीचे वाले भगवान करते हैं। ये सृष्टि वगैरह का कार्य ब्रह्मा-विष्णु-शंकर करते हैं। श्री कृष्ण स्वयं सृष्टि नहीं करते। न करोमि स्वयं- वे स्वयं कुछ नहीं करते, वेद कहता है। तो भगवान ने अपना अंश प्रकट किया प्रथम पुरुष के रूप में। तो प्रथम पुरुष ने क्या किया, ये बलराम हैं प्रथम पुरुष। वेद कह रहा है इन्होंने (प्रथम पुरुष) संकल्प किया, सोचा, प्रकृति की ओर देखा, दो काम किया- सोचा और देखा। प्रकृति माने माया, बहिरंग माया। ये बहिरंग माया भी दो प्रकार की होती है- एक जीव माया और दूसरी गुण माया। एक माया जो आप लोगों पर हावी है और एक माया जो सृष्टि करती है, तो गुण माया जो कि सृष्टि करने वाली है, उसकी और देखा बलराम ने अर्थात् प्रथम पुरुष ने अर्थात् महाविष्णु ने। और जितने जीव थे भगवान के महोदर में लीन महाप्रलय में, उन सब जीवों को संकल्प से प्रकट किया प्रकृति में और फिर अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड का क्रमशः प्राकट्य हुआ। बस प्रथम पुरुष का काम समाप्त।
अब प्रथम पुरुष ने द्वितीय पुरुष प्रकट किया, तो प्रथम पुरुष तो कारणार्णवशायी हैं और द्वितीय पुरुष गर्भोदशायी है। इन्होंने( द्वितीय पुरुष ने) क्या किया- अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो गए- द्वितीय पुरुष, और आधे ब्रह्माण्ड को अपने संकल्प के जल से भर दिया और अपने-आप से तीसरा पुरुष प्रकट किया- ये हैं क्षीरोदशायी (विष्णु)। इन्होंने (तृतीय पुरुष ने) क्या किया- ये प्रत्येक जीव के अन्तःकरण (heart) में प्रविष्ट हो गए। और प्रत्येक जीव के अनंतानंत जन्मों के प्रत्येक क्षण (every moment) के प्रत्येक संकल्प के हिसाब को लेकर के तदनुसार जीव में जीवत्व बुद्धि में ज्ञान शक्ति, मन में चिंतन शक्ति, इन्द्रियों में तत-तत कर्म करने की शक्ति- ये सब तृतीय पुरुष (क्षीरोदशायी) ने प्रदान किया। तो ब्रह्मा- विष्णु- शंकर के जनक गर्भोदशायी, और इनके जनक कारणार्णवशायी ( महाविष्णु) - इतने भगवान तो ऐसे हैं जो work करते हैं और श्री कृष्ण कुछ नहीं करते। कोई work नही है श्री कृष्ण का। इनका काम तो केवल एक है, क्या? जीवों का उद्धार और प्रेमदान करना। ये दो काम- माया की निवृति कराना और प्रेमदान करना। तो माया की निवृति और प्रेमदान, ये सारे भगवान करते हैं- क्योंकि उपरोक्त सारे भगवान श्री कृष्ण के ही स्वरूप् हैं, इनके स्वांश हैं, और विभिन्नांश हम लोग हैं। स्वांश में उनके परिकर भी हैं- ललिता-विशाखा आदि, ये भी स्वांश हैं। ये सब भगवद् स्वरूप् हैं। और कुछ नित्य सिद्ध महापुरुष होते हैं- वो भी भगवान के परिकर हैं, लेकिन वो जीव हैं, स्वांश नहीं। जीव् यानी हम लोग तटस्था शक्ति के अंश हैं और स्वांश भगवान के डायरेक्ट अंश हैं- उनके अभिन्न स्वरूप् हैं, इतना बड़ा अंतर है। सदा से जो माया से मुक्त थे, ऐसे अनादि सिद्ध महापुरुष भगवान की सेवा करते हैं, लेकिन वो जीव हैं, उनको नित्य- सिद्ध महापुरुष कहते हैं। और शेष मायाबद्ध जीव हम लोग हैं ही। तो अनंत कोटि ब्रह्माण्ड नायक महाविष्णु ये प्रथम पुरुष हैं- इनको बलराम कहते हैं। द्वितीय पुरुष गर्भोदशायी- इनको प्रद्युम्न कहते हैं तथा तृतीय पुरुष क्षीरोदशायी- इनको अनिरुद्ध कहते हैं। लेकिन ये सब भगवान ही हैं। मैने बताया था न राम नवमी को- अपने ही स्वरूप् को अंश रूप में प्रकट कर दिया। ये सब जितने भी भगवान हैं ये सब स्वरूप शक्ति को गवर्न (govern) करते हैं। भगवान् की एक पर्सनल पावर (personal power) है, उसका नाम है- स्वरूप शक्ति। उस स्वरूप शक्ति को गवर्न (govern) करते हैं ये सब के सब- ब्रह्मा- विष्णु- शंकर, और गर्भोदशायी, क्षीरोदशायी, महाविष्णु ये सब भगवान हैं। अर्थात् इन सबमें परिपूर्ण शक्तियाँ हैं छोटा-बड़ा नहीं कहना। काम अलग-अलग हैं। तो इन सब भगवानो का कार्य है- सृष्टि संबंधी, और श्री कृष्ण ने केवल संकल्प करके प्रथम पुरुष (महाविष्णु) को प्रकट कर दिया और उनकी छुट्टी (उनका काम खत्म)। अब उनके अंश सब काम कर रहे हैं।
तो श्री कृष्ण क्या करते हैं? श्री कृष्ण अपने भक्तों के साथ नित्य-नवायमान लीलाएँ करते हैं गोलोक में। उनका एक ही वर्क (work) है- आनंद देना और आनंद लेना। भक्तों को आनंद देना और भक्तों से आनंद लेना, और इन दोनों में भी भक्तों से आनंद लेना बहुत उच्च-कोटि (high level) का है, और भगवान का जो अपना आनंद है, वह इसके आगे निम्न कोटि का है, उसे स्वरूपानंद कहते हैं। अपना आनंद भगवान को जो मिलता है, वो छोटा है। छोटा का मतलब लिमिटेड (limited) नहीं, वो रस- वैलक्षण्य की दृष्टि से हम कह रहे हैं उसे छोटा। और जो भक्तों से आनंद मिलता है वह मानसानंद कहलाता है, उसमे विशेष मधुरता हो जाती है। इतनी मधुरता हो जाती है कि जब अपना आनंद भगवान लेते हैं, तो समस्त शक्तियाँ उनके पास रहती हैं- ऐश्वर्य शक्ति भी, माधुर्य शक्ति भी। और जब भक्तों के सामने भगवान जाते हैं, तो ऐश्वर्य शक्ति समाप्त हो जाती है। केवल माधुर्य- माधुर्य रह जाता है। यानी भगवान क्रीत दास बन जाते हैं। ये तो भक्त और भगवान की बात मैंने बताई। ये जो भगवान आनंद देते हैं और लेते हैं, इस प्रेमानंद का जो खजांची है जिसके पास ये पूरा माल-टाल है, चाभी है तिजोरी की, वो है- °राधा- तत्त्व°। यानी किशोरी जी से लिया और भक्तों को दिया। - - - ह्लादिनी शक्तेरो परम सार तार प्रेम नाम- - - और प्रेमेरो परम सार महाभाव जानी सेइ महाभाव रूपी राधा ठकुरानी। आनंद में भी मधुरता की- मधुरता की- मधुरता की जो चरम सीमा है- वह राधा है। आनंद तो बहुत छोटी-सी चीज़ है। आनंद अभी मिला नहीं आप लोगोँ को, जब मिलेगा तब समझियेगा आनंद क्या होता है!
आनंद सबसे नीचे क्लास का होता है परमहंसो का, ब्रह्मानंद कहते हैं उसको, अनन्त आनंद होता है वह। उससे ऊँचा आनंद होता है योगियों का, वो परमात्मानंद कहलाता है। उससे ऊँचा आनंद होता है शांत भाव के उपासक भक्तों का(वैकुण्ठ का)। और उससे भी ऊँचा दास्य भाव का, उससे भी ऊँचा सख्य भाव का, उससे भी ऊँचा वात्सल्य भाव का, उससे भी ऊँचा माधुर्य भाव का रस होता है। और माधुर्य भाव में भी तीन क्लास होते हैं- (1)सकाम (2) सकाम- निष्काम मिक्चर और (3) केवल निष्काम।
सकाम प्रेम कुब्जा आदि का, सकाम- निष्काम मिक्चर रुक्मणी आदि का और निष्काम ब्रज गोपियों का प्रेम है। निष्काम प्रेम माने जिसमे कोई कामना ना हो। देखो ब्रह्मानंदि को तो मोक्ष की कामना है। कोई कहता है, हे श्री कृष्ण दर्शन दो, ये भी कामना है। क्यों दर्शन दो, ऐसा क्यों कहते है तुम्हारे सर्वेण्ट (servent) हैं।
उनकी जब इच्छा हो, तब दर्शन दें, हम आज्ञा देने वाले कौन होते हैं। हमारी केवल एक ही मंशा होनी चाहिए- श्री कृष्ण की सेवा करना, यही हमारा लक्ष्य है और उस सेवा से हमको आनंद मिले, ना-ना ये मत मानना। अगर आनंद का उपभोग करने लगे आप, तो फिर सेवा नहीं कर सकते आप।
एक भक्त श्री कृष्ण को पंखा कर रहा था और पंखा करते-करते आनंद के आँसू आ गए, हाथ रुक गया, होश आया- अरे! ये मैं आनंद लेने लगा, ऐसा गधा हूँ मैं कि अपने प्राण-वल्लभ की सेवा छोड़ आनंद लेने लगा, स्वार्थी हूँ मैं तो।
बस! सुन लीजिये, अभी वहाँ की कल्पना भी नहीं कर सकते आप। तो ऐसा प्रेम है गोपियों का जो समर्था रति का प्रेम होता है, लेकिन वो गोपियाँ भी महाभाव तक जाती हैं बस! ये अंतिम स्थिति है। इसके आगे एक और क्लास है- जहाँ श्री कृष्ण भी नहीं जा सकते। - मादनाख्य-महाभाव- वहाँ केवल किशोरी जी की सीट है, राधा तत्त्व है। वहीं से सप्लाई होता है वो, ठाकुर जी के पास आता है, भिखारी बनकर इसीलिए ठाकुर जी किशोरी जी की उपासना करते हैं। इसीलिए सबसे पहले राधा शब्द बोला जाता हैं, नंबर दो पर है श्री कृष्ण। ब्रह्मवैवर्त पुराण कहता है- पहले राधा का उच्चारण करना जीवों, उसके बाद श्री कृष्ण का। श्री कृष्ण राधा तत्व के अंडर में हैं और श्री कृष्ण के अंडर में महाविष्णु, और गर्भोदशायी और क्षीरोदशायी, सब उनके अंडर में है। लेकिन हैं सब ये स्वरूप शक्ति के मालिक।
तो राधा तत्त्व वो है जिसकी उपासना स्वयं श्री कृष्ण करते हैं, जिन श्री कृष्ण की उपासना महाविष्णु आदि करते हैं, जिनके अंडर में अनंत कोटि ब्रह्माण्ड हैं। तो उस राधा तत्त्व के विषय में कोई शब्दों की गति नहीं, जिसके बारे में वेद (राधोपनिषद ने कहा) भी ठीक से नहीं जानते, वहाँ है वह राधा तत्त्व।

--- बोलिये लाड़ली लाल की जय।

.......जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।

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