सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

नवंबर, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

-- हमारे श्री कृपालुजी महाराज --

कानपुर के एक सत्संगी है पचास के लगभग की अवस्था है पिछले 34 वर्षों से सत्संग में हैं, माता, पिता भाई, बहन सभी श्री महाराज जी के शरणागत हैं l इन्होंने विवाह नहीं किया है  इन्होंने श...

जगद्गुरुत्तम संदेश ( हमेशा याद रखें यह सिद्धान्त ) :-

* द्वेष करने वाले व्यक्ति के प्रति भी द्वेष न करें | उदासीन रहे | * आज कोई नास्तिक भी है तो कल उच्च साधक बन सकता है अत: साधक यह न सोचे कि इसका पतन सदा को हो चुका | सूरदास संत उदाहरण हैं | *...

प्रश्न :- जब भगवान लीला संवरण करते है , महापुरुष लीला संगोपान करते है , तो अनुयायियों के पास मार्गदर्शन के लिए क्या बच गया ?

उत्तर:- इतिहास में चलते हैं | गौरांग महाप्रभु ने अपनी लीला संवरण से पूर्व अपने प्रमुख अनुयायी रुपगोस्वामी जी को आज्ञा दी थी :- ग्राम्यकथा न शुनिबे ग्राम्यवार्त्ता न कहिबे | भ...

प्रश्न :- हमारे श्री महाराज जी (जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाप्रभु)का वास्तविक स्वरूप क्या है ?

प्रश्न :- हमारे श्री महाराज जी (जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाप्रभु)का वास्तविक स्वरूप क्या है ? उत्तर युगलशरण जी महाराज (प्रचारक)द्वारा :- भगवान अवतार लेते हैं , यह समस्त वेद- शास...

श्री महाराज जी के श्री मुख से :-

एक बार एक शिष्य नदी पार कर अपने आश्रम जा रहा था । नाव में उसके साथ अनेक यात्री बैठे थे । उनमें कुछ युवक भी थे । शिष्य की धोती एवं शिखा देख सभी युवक उसका उपहास कर रहे थे । किन्तु वह कुमार अत्यंत धीर - गम्भीर हो बैठा था । अन्य सभी यात्री भी युवकों की शरारतपूर्ण बातों को सुन मुस्कुरा रहे थे । न उस शिष्य ने , न ही अन्य किसी यात्री ने उन युवकों का विरोध किया । युवक इससे उत्साहित हो उस शिष्य को और अधिक चिढ़ाने लगे । किसी ने उसकी शिखा खींची , तो किसी ने उसकी धोती का मजाक बनाया ,  पर वह शिष्य अत्यंत शान्त हो बैठा रहा । किसी प्रकार का प्रतिवाद उसने नही किया । यहां तक कि एक युवक उसे पत्थर फेंक कर मारा , जिससे उसके माथे से रक्त निकल आया । फिर भी वह उसी शांत और स्थिरता के साथ बैठा रहा । कोई विरोध न किया । अब किनारे आ गया । शिष्य वहाँ उतर गया  और नाव आगे बढ़ी । नाव अभी बीच में हीं पहुँची थी कि पलट गई , सारे यात्री नदी में डुबने लगे , शिष्य का मजाक उड़ाने वाले से लेकर मजा लेने वाले और चुपचाप देखने वाले , लुत्फ उठाने वाले भी , सारे के सारे डुबने लगे ।  पर वह शिष्य बहुत द...

वेद कहता है -

वेद कहता है - उद्यानं ते पुरुष नावयानम् । अरे मनुष्य ! सोच तुझसे आगे कुछ भी नहीं है , देवता भी तेरे नीचे हैं, ये भी तरसते हैं मानव देह को । तू ऐसे देह को पाकर खो रहा है । क्या कर रहा है ? जी जरा आजकल मैं सर्विस खोज रहा हूँ । जरा आजकल मैं एक लाख के चक्कर में हूँ , जरा आजकल , लड़का जरा बड़ा हो जाय , बीबी जरा ऐसी हो जाय, बेटा जरा । क्या सोच रहा है ? इसके लिये तू आया है ? अनन्त बाप, अनन्त बेटे, अनन्त पति , अनन्त बीबी , अनन्त वैभव अनन्त जन्मों में बना चुका , पा चुका, भोग चुका , खो चुका अब भी पेट नहीं भरा ? फिर दस बीस करोड़, दस बीस अरब , दस बीस बीबी , दस बीस बच्चे के चक्कर में पड़ा है । सोच । उठ ऊपर को ' उद्यानम् ' । अगर तू चूक गया तो ऐ मनुष्य ! तुझसे आगे कोई सीट नहीं है ये अन्तिम सीट पर तू खड़ा है । अब जब यहाँ से नीचे गिरेगा तो - आकर चारि लक्ष चौरासी । योनि भ्रमत यह जिव अविनाशी। कबहुँक करि करुणा नर देही । करुणा करके मानव देह , इस बार जो मिला , यह हर बार नहीं मिला करेगा । हजार , लाख , करोड़ साल बाद भी नहीं मिला करेगा । ये तो ' कबहुँक करि करुणा नर देही ।' #जगद्गुरु_श्री_कृपालु_ज...

जगद्गुरुत्तम संदेश

( हमेशा याद रखें यह सिद्धान्त ) :- * द्वेष करने वाले व्यक्ति के प्रति भी द्वेष न करें | उदासीन रहे | * आज कोई नास्तिक भी है तो कल उच्च साधक बन सकता है अत: साधक यह न सोचे कि इसका पतन सदा को हो चुका | सूरदास संत उदाहरण हैं | * गुरु की सेवा करने वाला तो साधक ही है, उसके प्रिय होने के कारण उस से द्वेष करना पाप है | * सचमुच भी कोई अपराधी हो तो भी मन से भी उसके भूतपूर्व अपराधो को न सोचे , न वोले | * संसार में भगवत्प्राप्ति के पूर्व सभी अपराधी हैं | बड़े बड़े साधकों का पतन एवं बड़े बड़े पापियों का भी उत्थान एक क्षण में हो सकता है | * सब में श्री कृष्ण का निवास है अत: उनको ही महसुस करें | * मन को सदा श्री कृष्ण एवं उनके नाम , रुप , गुण , लीला , धाम, तथा उनके स्वजन में ही रखना है | * अपने शरण्य ( हरि एवं गुरु ) को सदा अपने साथ रक्षक रुप में मानना है | * परदोष दर्शनादि कुसंगों से बचना है | * दोष चिन्तन करते हुये शनै शनै बुध्दि भी दोषयुक्त हो जाती है | * परदोष दर्शन ही स्वयं के सदोष होने का पक्का प्रमाण है | * हमारा निन्दक हमारा हितैषी है | * निन्दनिय के प्रति भी दु...

श्री महाराज जी

*हम हार गये आप लोगों से...!* हमारा जो परपज है कि *तुम लोग भगवान् की ओर चलो, गन्दी भावनायें अन्तःकरण में न लाओ ये हम आशा करते हैं। हमने अपना सारा जीवन तुम लोगों के लिये अर्पित किया है इसलिए कि तुम लोग एक आदर्श शिष्य बनो,* जो भी देखे बाहर वाला या तुम्हारे घर वाला कोई देखे माँ, बाप, कोई अरे कितना बदल गया ये, कितनी नम्रता है इसमें, हाथ जोड कर बात करता है, हर एक से मीठा बोलता है, क्रोध नहीं करता है। अगर क्रोध आ भी जाय तो भीतर उसको समाप्त कर दो। बाहर से वाक्य न बोलो तो वो बात आगे नहीं बढ़ेगी। फिर एक बात तो ये मुझे कहनी है, कि *आप लोग अपना सुधार करें और हमको भी सुख दें।*माया से छुटकारा मिल जाय ये सब उद्देश्य आप लोगों का घर से रहा होगा, और न रहा हो तो ये होना चाहिए। *मनुष्य देह पाये, भारत में जन्म हो, और गुरु भी मिल जाय, और वो गुरु समझ में आ जाय, सब बात बन जाय और फिर भी हम अपना कल्याण न करें, तो इससे गुरु को दुःख होता है, ये सेवा नहीं है । सेवा का मतलब स्वामी को सुख देना । किसी भी बाप को उसी सन्तान से सुख मिलेगा, जो सन्तान अच्छे आचरण वाली हो, जिसका स्वभाव सरल हो, दीन हो, नम्र हो, मधुर ह...

*संत दादू दयाल

*संत दादू दयाल अपनी सादगी और सहनशीलता के लिए सर्वत्र विख्यात थे। एक बार एक थानेदार घोड़े पर सवार होकर उनके दर्शन को चल पड़ा। संत दादू फटे-पुराने वस्त्र पहने एक पेड़ की छाया में बैठे थे।* *अहंकारी थानेदार के दिमाग में यह बात नहीं आई कि ऐसा साधारण आदमी संत दादू दयाल हो सकता है। उसने घोड़े पर बैठे-बैठे कड़कदार आवाज में पूछा, ‘अरे ओ बुड्ढे! क्या तू जानता है कि संत दादू दयाल कहां रहते हैं?’ वह शांत भाव से बैठे रहे। थानेदार ने दोबारा पूछा, बहरा है क्या? मैं पूछ रहा हूं संत दादू दयाल कहां रहते हैं?’ इस बार भी संत दादू ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वे मंद-मंद मुस्कुराते हुए अपना काम करते रहे।* *थानेदार को लगा कि वह जानबूझ कर उसकी बात अनसुनी कर रहे हैं। इसे अपना अपमान समझ वह उन्हें धमकियां देने लगा। जब इस पर भी संत दादू कुछ नहीं बोले, तो तंग आकर गालियां बकता हुआ थानेदार आगे बढ़ गया। आगे जाकर थानेदार ने एक आदमी से पूछा, ‘क्या तुम जानते हो कि संत दादू दयाल कहां रहते है?’ उस आदमी ने उसे वापस पीछे चलने को कहा और उसे संत दादू के पास ले आया। थानेदार यह जानकर सन्न रह गया कि संत दादू दयाल वही हैं, जिन...

राधाकुंड मार्जन

राधाकुंड मार्जन click to see राधाकुंड मार्जन video

♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻

♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻             श्री मती दयावती (रायगढ़) के घर उस दिन कुछ अधिक ही झगड़ा हो गया था। रात्रि में उठी तो एक कुएँ के पास जाकर के आत्महत्या करने के उद्देश्य से अपनी कमर में चाकी का पाट बाँधा और कुएं पर पँहुच गयी। वे कूदना ही चाहती थी कि श्री महाराज जी ने उनका हाथ पकड़ लिया। और कहा मानव देह का मोल नहीं समझती क्या ?  दो तीन घंटे तरह तरह से समझाकर उन्हें शान्त कर दिया और वापस भिलाई चले गए। श्री महाराज जी का प्रवचन उन दिनों भिलाई में चल रहा था। एक सत्संगी को जब यह बात पता चली तो उन्होंने उस स्त्री से कहा ऐसा कैसे हो सकता है उस समय तो महाराज जी प्रवचन दे रहे थे। किसी और सत्संगी को जब ये बात पता चली तो उन्होने पूछताछ के लिए एक आदमी रायगढ़ भेजा। वहाँ जाकर पता चला श्री महाराज जी वहाँ आये थे और दो तीन घंटे पश्चात् ही वापस चले गये। एक बार लखनऊ के श्री जगदीश प्रसाद ने किन्ही कारणों से साप्ताहिक सत्संग में आना बन्द कर दिया था। श्री महाराज जी ने उनको बुलाया और कहा, जगदीश तुम हमारे पास बहुत दिनों से आते हो किन्तु तुमने कुछ अर्जित नहीं किया। ...

*परनिंदा...*

*परनिंदा...* सत्य सिद्धान्त तो यह है कि जो स्वयं निंदनीय होता है वही दूसरों की निंदा करता है। *परनिंदा करना ही स्वयं के निंदनीय होने का पक्का प्रमाण है। भगवान एवं उनके भक्तों की निंदा कभी भूल कर भी न सुननी चाहिए, न ही करनी चाहिए अन्यथा साधक का पतन निश्चित है, तथा उसकी सतप्रवर्तियाँ भी नष्ट हो जाती हैं।* प्राय: अल्पज्ञ-साधक किसी महापुरुष की निंदा सुनने में बड़ा शौक रखता है। वह यह नहीं सोचता कि जो यह निंदा कर रहा है, भगवान की, या उनके जन की, इसका खुद का क्या स्तर है, अरे वो तो स्वयं निंदनीय है, जब तक स्वार्थ-पूर्ति होती रही उस निंदनीय व्यक्ति की, चुप-चाप स्वार्थ साधता रहा, किसी गलती पर बहुत सहने के बाद गुरु ने निकाल दिया तो अब निंदा करता फिरता है, आप खुद विचार कीजिये क्या वो महापुरुष है, जो किसी भगवदजन को समझ सकेगा, नहीं। *सदा याद रखो कि संत निंदा सुनना नामापराध है। वास्तव में तो यही सब अपराध तो अनादिकाल से जीव को सर्वथा भगवान के उन्मुख ही नहीं होने देते।* जिस प्रकार कोई पूरे वर्ष दूध, मलाई, रबड़ी, आदि खाये, एवं इसके पश्चात ही एक दिन विष खा ले, तथा मर जाये। अतएव *बड़ी ही सावधानी पूर्व...

*बस इतना सा हमारा निवेदन...!*

*बस इतना सा हमारा निवेदन...!* साधना से हिम्मत नहीं हारना चाहिये। ये मन दुश्मन है अनादि काल का दुश्मन है। *इससे दुश्मनी से ही पेश आओ दोस्ती न करो।* *न कुर्यात् कर्हिचित्सख्यं मनसि ह्यनवस्थिते। ( भाग. ५-६-३ )* भगवान् ऋषभ ने कहा था मन से सख्य न करो, दोस्ती न करो। *ये मन तुमको लाड़ में लाकर, दोस्त बनाकर चौरासी लाख में घुमा रहा है। यह देख लो, ये संसार, ये खा लो, ये आँख से देखो, ये कान से सुनो, ये नाक से, ये संसार का विषय दे देकर भगवान् से दूर कर रहा है। अब इसकी न सुनो। डट जाओ। हठ करो। पहले पहल हठ करना होगा। दुश्मन मन के साथ तुम भी दुश्मनी पर तुल जाओ। ये जो कहता है वो नहीं करेंगे। ये लापरवाही सिखाता है, संसार की ओर ले जाता है। वो नहीं होने देंगे।* हमारी भी जिद्द है। अरे करके देख लो कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। *जाते कछु निज स्वारथ होई। तापर ममता करे सब कोई।* ये सिद्धान्त है। तो तुम्हारा माने आत्मा का स्वार्थ हरि गुरु से ही है, ' भी ' नहीं। इसलिए मन का अटैचमेन्ट वहीं हो, संसार में ड्यूटी करो। इसलिए *रूपध्यान बनाना है, बार बार बनाना है। हारना नहीं है, हराना है मन को, कमर कस ल...

क्या ऐसा ग्रंथ किसी अन्य धर्म मैं है ?इसे तो सात आश्चर्यों में से पहला आश्चर्य माना जाना चाहिए

click to see the pdf file राघवयादवीयम् क्या ऐसा ग्रंथ किसी अन्य धर्म मैं है ? इसे तो सात आश्चर्यों में से पहला आश्चर्य माना जाना चाहिए --- यह है दक्षिण भारत का एक ग्रन्थ क्या ऐसा संभव है कि जब आप किताब को सीधा पढ़े तो रामायण की कथा पढ़ी जाए और जब उसी किताब में लिखे शब्दों को उल्टा करके पढ़े  तो कृष्ण भागवत की कथा सुनाई दे। जी हां, कांचीपुरम के 17वीं शदी के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ " राघवयादवीयम्" ऐसा ही एक अद्भुत ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ को  ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। पूरे ग्रन्थ में केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और  विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा। इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60 श्लोक। पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है ~ "राघवयादवीयम।" उदाहरण के तौर पर पुस्तक का पहला श्लोक हैः वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भास...