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श्री महाराज जी के श्री मुख से :-

एक बार एक शिष्य नदी पार कर अपने आश्रम जा रहा था । नाव में उसके साथ अनेक यात्री बैठे थे । उनमें कुछ युवक भी थे । शिष्य की धोती एवं शिखा देख सभी युवक उसका उपहास कर रहे थे । किन्तु वह कुमार अत्यंत धीर - गम्भीर हो बैठा था ।
अन्य सभी यात्री भी युवकों की शरारतपूर्ण बातों को सुन मुस्कुरा रहे थे ।
न उस शिष्य ने , न ही अन्य किसी यात्री ने उन युवकों का विरोध किया । युवक इससे उत्साहित हो उस शिष्य को और अधिक चिढ़ाने लगे । किसी ने उसकी शिखा खींची , तो किसी ने उसकी धोती का मजाक बनाया , 
पर वह शिष्य अत्यंत शान्त हो बैठा रहा । किसी प्रकार का प्रतिवाद उसने नही किया । यहां तक कि एक युवक उसे पत्थर फेंक कर मारा , जिससे उसके माथे से रक्त निकल आया । फिर भी वह उसी शांत और स्थिरता के साथ बैठा रहा । कोई विरोध न किया । अब किनारे आ गया । शिष्य वहाँ उतर गया  और नाव आगे बढ़ी ।
नाव अभी बीच में हीं पहुँची थी कि पलट गई , सारे यात्री नदी में डुबने लगे , शिष्य का मजाक उड़ाने वाले से लेकर मजा लेने वाले और चुपचाप देखने वाले , लुत्फ उठाने वाले भी , सारे के सारे डुबने लगे । 
पर वह शिष्य बहुत दु:खी हुआ । उसने भगवान से कहा - प्रभु ! यह आपने क्या किया ?
भगवान ने उत्तर दिया - पुत्र ! तुम्हारे अति दीन स्वभाव को देखकर मुझसे रहा न गया , अतएव मुझे ही उन्हे, दण्ड देना पड़ा । यदि तुम उनका जरा भी प्रतिकार करते, तो मैं उन्हे दण्ड न देता , किन्तु तुम पूर्णत: शरणागति हो और मैं शरणागत की रक्षा करता हूँ । मेरे शरणागत भक्त को कोई सताए तो मैं उसको स्वयं कठोर दण्ड देता हूँ यह मेरा विधान है ।
- श्री महाराज जी 
महाराज जी ने इसिलिए बार-बार कहा है - तुम्हारी कितनी प्रगति हुई है , इसे मापा जा सकता है यह देखकर कि तुम्हारे अन्दर कितनी दीनता है । दीनता- सहनशीलता भक्ति के आभूषण हैं ।

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