*बस इतना सा हमारा निवेदन...!*
साधना से हिम्मत नहीं हारना चाहिये। ये मन दुश्मन है अनादि काल का दुश्मन है। *इससे दुश्मनी से ही पेश आओ दोस्ती न करो।*
*न कुर्यात् कर्हिचित्सख्यं मनसि ह्यनवस्थिते। ( भाग. ५-६-३ )*
भगवान् ऋषभ ने कहा था मन से सख्य न करो, दोस्ती न करो। *ये मन तुमको लाड़ में लाकर, दोस्त बनाकर चौरासी लाख में घुमा रहा है। यह देख लो, ये संसार, ये खा लो, ये आँख से देखो, ये कान से सुनो, ये नाक से, ये संसार का विषय दे देकर भगवान् से दूर कर रहा है। अब इसकी न सुनो। डट जाओ। हठ करो। पहले पहल हठ करना होगा। दुश्मन मन के साथ तुम भी दुश्मनी पर तुल जाओ। ये जो कहता है वो नहीं करेंगे। ये लापरवाही सिखाता है, संसार की ओर ले जाता है। वो नहीं होने देंगे।* हमारी भी जिद्द है। अरे करके देख लो कोई बहुत बड़ी बात नहीं है।
*जाते कछु निज स्वारथ होई। तापर ममता करे सब कोई।*
ये सिद्धान्त है। तो तुम्हारा माने आत्मा का स्वार्थ हरि गुरु से ही है, ' भी ' नहीं। इसलिए मन का अटैचमेन्ट वहीं हो, संसार में ड्यूटी करो। इसलिए *रूपध्यान बनाना है, बार बार बनाना है। हारना नहीं है, हराना है मन को, कमर कस लो। अबकी बार आप लोग बस यही करें, ये हमारा बार बार निवेदन है।* फिर देखें, आप कितनी जल्दी भगवान् के पास पहुँचते है। और कितना आपको सुख मिलता है रूपध्यान में। फिर आपके आँसू आयेंगे, कम्प होगा, रोमांच होगा, आनन्द का आभास होगा। आभास भी होने लग जाये तो फिर तो आप जम्प करके चले जायेंगे आगे। फिर दूरी नहीं है, देरी नहीं है। ये देरी और दूरी इसलिए है, कि हम मन के गुलाम बने हुये हैं। *बस इतना सा हमारा निवेदन हर समय ध्यान में रखियेगा, भूल न जाइयेगा। हाँ।*
*जगद्गुरु श्री कृपालु महाराज जी.......!*
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राधे राधे ।