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*परनिंदा...*

*परनिंदा...*
सत्य सिद्धान्त तो यह है कि जो स्वयं निंदनीय होता है वही दूसरों की निंदा करता है। *परनिंदा करना ही स्वयं के निंदनीय होने का पक्का प्रमाण है। भगवान एवं उनके भक्तों की निंदा कभी भूल कर भी न सुननी चाहिए, न ही करनी चाहिए अन्यथा साधक का पतन निश्चित है, तथा उसकी सतप्रवर्तियाँ भी नष्ट हो जाती हैं।* प्राय: अल्पज्ञ-साधक किसी महापुरुष की निंदा सुनने में बड़ा शौक रखता है। वह यह नहीं सोचता कि जो यह निंदा कर रहा है, भगवान की, या उनके जन की, इसका खुद का क्या स्तर है, अरे वो तो स्वयं निंदनीय है, जब तक स्वार्थ-पूर्ति होती रही उस निंदनीय व्यक्ति की, चुप-चाप स्वार्थ साधता रहा, किसी गलती पर बहुत सहने के बाद गुरु ने निकाल दिया तो अब निंदा करता फिरता है, आप खुद विचार कीजिये क्या वो महापुरुष है, जो किसी भगवदजन को समझ सकेगा, नहीं। *सदा याद रखो कि संत निंदा सुनना नामापराध है। वास्तव में तो यही सब अपराध तो अनादिकाल से जीव को सर्वथा भगवान के उन्मुख ही नहीं होने देते।* जिस प्रकार कोई पूरे वर्ष दूध, मलाई, रबड़ी, आदि खाये, एवं इसके पश्चात ही एक दिन विष खा ले, तथा मर जाये। अतएव *बड़ी ही सावधानी पूर्वक सतर्क होकर हरि, हरि-जन-निंदा श्रवण से बचना चाहिए।*
*जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज...!*

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