प्रश्न :- हमारे श्री महाराज जी (जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाप्रभु)का वास्तविक स्वरूप क्या है ?
उत्तर युगलशरण जी महाराज (प्रचारक)द्वारा :-
भगवान अवतार लेते हैं , यह समस्त वेद- शास्त्रों का सर्वमान्य सिद्धांत है। दिव्य शरीर धारण कर उनका अवतार होता है। अनंत अवतार हैं। परावस्था अवतार श्रेष्ठ है सबसे ! परावस्था अवतार में तीन अवतार पुर्णावतार हैं - नृसिंह भगवान का अवतार , रामावतार और कृष्णावतार। इनमें कृष्णावतार सबसे आकर्षणीय अवतार है क्योंकि इसमें न मर्यादा है, न ऐश्वर्य।
अवतार के कई कारण हैं - धर्म संस्थापन , अधर्म का विनाश। वे नाम , रुप , लीला , गुण , धाम छोड़कर भी जाते हैं , जिसका अनुशीलन करके हम लोग उनको प्राप्त कर लेते हैं।
ब्रह्मानंदियों को प्रेमानंद दान करना भी भगवान के अवतार का उद्देश्य है और जिस प्रेम के अधीन स्वयं भगवान हैं , उसी प्रेम धर्म का प्रचार करने के लिए भी भगवान अवतार लेते हैं। श्री कृष्णावतार जो हुआ था , उसके समस्त बहिरंग - अंतरंग कारण आपलोग जानते हैं लेकिन एक निजी कारण भी है। गोलोक के श्री कृष्ण को परकीया माधुर्य रस का आस्वादन करने का सौभाग्य नही मिला।
उसी परकीया माधुर्य रस का आस्वादन करने के लिए श्री कृष्ण इस धराधाम पर अवतरित हुए थे।
अपना अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त करके श्री कृष्ण चले गए , लेकिन कृष्णावतार में एक चीज नहीं हो पाई , राधा प्रेम की गहराई को श्री कृष्ण अनुभव नही कर पाए।
उनके मन में लालसा हुई , राधा प्रेम को जानने की।
इसलिय राधाभाव को अंगीकार करके लगभग 5०० साल पहले वही कृष्ण गौरांग होकर अवतीर्ण हुए थे।
कृष्णावतार में जो चीज नही मिली , गौर अवतार में वही चीज मिल गई। लेकिन वही गौरांग फिर आए , यह अनुमान प्रमाण , शब्द प्रमाण , और प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रमाणित है।
'काशी विद्वत परिषत ' के द्वारा श्री महाराज जी को उपाधियाँ दी गई थी - जगद्गुरुत्तम , निखिलदर्शनसमन्वाचार्य , भक्तियोगरसावतार आदि। श्री महाराज जी के पुर्व चार मूल जगद्गुरु हुए हैं। प्रथम जगद्गुरु जो आदि शंकराचार्य हुए , वे स्वयं शंकर भगवान के अवतार थे। द्वितीय जगद्गुरु रामानुजाचार्य स्वयं वलराम के अवतार थे।
तृतीय जगद्गुरु निम्बार्काचार्य सुदर्शन चक्र के अवतार थे। चतुर्थ जगद्गुरु माध्वाचार्य हनुमानजी के अवतार थे।
तो जगद्गुरुत्तम की उपाधि से सुस्पष्ट है , हमारे प्रभु श्री कृपालु जी महाराज वें स्वयं परतत्त्व हैं।
दुसरी उपाधि - निखिलदर्शनसमन्वाचार्य , आज तक विश्व के अध्यात्मिक इतिहास में निखिल दर्शनों का समन्वय किसी महापुरुष , किसी अवतार ने नहीं किया था।
और निखिल दर्शन का समन्वय वही कर सकता है , जो निखिल दर्शनों का ज्ञाता है।
तो निखिलदर्शनसमन्वाचार्य उपाधि से हमारे प्रभु की भगवत्ता सुस्पष्ट है।
तीसरी उपाधि - भक्तियोगरसावतार।
भक्तियोगरसावतार यानी प्रेम के अवतार की उपाधि गौरांग महाप्रभु को मिली थी क्योंकि राधाभाव को अंगीकार करको अवतीर्ण हुए थे। अत: 'भक्तियोग रसावतार ' उपाधि से भी हमारे प्रभु की भगवत्ता सुस्पष्ट है। यह अनुमान प्रमाण है।
और शब्द प्रमाण ! चैतन्य भागवत में प्रसंग आता है , जिसमें शची माता को सम्बोधित करते हुए गौरागं महाप्रभु कहते हैं -
आरो दुई जन्म एई संकीर्तनारम्भे।
हइब तोमार पुत्र आमि अविलम्बे।।
- श्री चैतन्यभागवत
तो शब्द प्रमाण से हमारे प्रभु की प्रभुता , हमारे प्रभु की भगवत्ता सुस्पष्ट है।
तो वही गौरांग फिर आए ,इस अवतार काल में वही सिद्धातं , वही संकीर्तन का रस प्लवित करने के लिए।
अब प्रश्न उठता है - इस अवतार का क्या उद्देश्य हो सकता है ?
मेरी क्षुद्र बुद्धि में यही बात आती है कि जिस राधा प्रेम का पिछले अवतार में प्रभु ने आस्वादन किया , उसी राधा प्रेम को हम जैसे पतितों पर विशेष कृपा करके वितरित करने के लिय इस अवतार काल में हमारे प्रभु अवतरित हुए थे।
अत: हमारे प्रभु श्री कृपालु जी महाराज का वास्तविक स्वरुप यह है कि वे स्वयं परतत्त्व हैं और राधाप्रेम का आस्वादन करते हुए उसे वितरित करने के लिए अवतरित हुए थे।
राधे राधे 🙏
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राधे राधे ।