वृन्दावन के किशोरवन में स्वामी गोविन्ददास जी रहते थे !
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बडे विरक्त महात्मा थे,
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किसी से कुछ नहीं मांगते थे !
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मधुकरी-भिक्षा को भी नहीं जाते थे !
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सम्पति के नाम पर उनके पास एक टूटी सी झोंपड़ी, एक मिटटी का करुआ, और दो ग्रन्थ थे !
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एक दिन गोविन्ददास जी भावना में बैठे तो लीला स्फूर्ति न हुई,
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बहुत सोचने के बाद भी जब कारण समझ नहीं आया,
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तो एक सिद्द महात्मा से इसका कारण पूछा !
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उन्होने कहा-तुमसे किसी वैष्णव के प्रति अपराध हुआ है !
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"अपराध तो किसी के प्रति नहीं हुआ" उन्होने सोचते सोचते उतर दिया !
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फिर कुछ सोचने पर उन्ही ध्यान आया, के कल एक महात्मा आये थे,
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अपने गुरु की पुण्यतिथि पर प्रसाद पाने को कह रहे थे !
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पर मैंने ये कह के मना कर दिया था, कि मैं बाहर का कुछ नहीं खाता !
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तब वो खिन्न मन से चले गये थे, यही अपराध हुआ होगा !
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क्योंकि भण्डारो में पता नहीं किसका पैसा लगता है,
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उससे खाने से चित के चंचल होने का डर रहता है, और भजन में विघ्न पड़ता है !
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इस पर वो सिद्द महात्मा ने कहा कि तुम्हारा अस्वीकार करने का तरीका सही नहीं है,
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तुम एक किनका (जरा सा) लेकर भी प्रसाद का सम्मान कर सकते थे !
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उस दिन के बाद जहाँ से भी निमंत्रण आता,
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गोविन्द दास जी सेवा में लगे बर्तनों को धोकर उनका जल पी लेते,
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इस प्रकार उनका नियम भी रह जाता और प्रसाद का असम्मान भी न होता !
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ऐसे ही सेवा और चिंतन करते एक दिन गोविन्द दास जी सोचने लगे,
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कि अभी तक ठाकुर ने प्रत्यक्ष में कोई कृपा नहीं की !
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तभी एक बालक और बालिका कुटिया में घुसे, और जो वो ठाकुर जी का भोग तैयार कर रहे थे,
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उस में से एक-एक रोटी उठा कर भाग गये
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बाबा आवाज़ लगाते रहे, अरे अमनिया है, अमनिया (भोग) है !
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यह कहते वह मंदिर की और भागे,
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तो देखा बालको में से कोई नहीं है,
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और राधा कृष्ण की मूर्तियों के हाथ में एक एक रोटी पकड़ी है,
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वे एकटक नेत्रों से ये देखते रहे,
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और बाद में मूर्छित हो कर गिर पड़े !
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और इस के बाद कई दिन तक इसी भाव समुन्द्र मैं डूबते उतरते रहे !
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और कुछ समय पश्चात् उन्हे प्रभु कृपा से प्रभु धाम की प्राप्ति हुई !
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जय श्री राधे कृष्ण !
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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राधे राधे ।