एक राजा अपनी प्रजा का खूब ध्यान रखता. प्रजा के कल्याण में हमेशा प्रयत्नशील रहता था. प्रजा के कल्याण में डूबे राजा ने कभी अपने सुख, ऐशो-आराम की चिंता ही नहीं की.
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राजा स्वभाव से धार्मिक था और उसे पता था भगवत भजन, पूजा-पाठ आदि से मोक्ष के द्वार खुलते हैं लेकिन उसका सारा समय तो सेवाकार्य में बीत जाता इस कारण वह भजन पूजन के लिए
समय ही नहीं निकाल पाता.
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एक सुबह राजा वन की तरफ घूमने निकला. उसे एक देव के दर्शन हुए जिनके हाथों में एक लंबी चौड़ी दिव्य पुस्तक दिखी. राजा ने देव का अभिनन्दन कर पुस्तक के बारे में पूछा.
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देव बोले- यह हमारा बहीखाता है, जिसमे सभी भजन-पूजन करने वालों के नाम हैं.
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राजा ने अनमने भाव से पूछ ही लिया- आशा तो नहीं फिर भी इस किताब में कहीं मेरा नाम भी है क्या ?
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देवता ने किताब का सारा पन्ना पलट डाला लगे, परन्तु राजा का नाम कहीं नजर नहीं आया.
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राजा ने कहा- वास्तव में ये मेरा दुर्भाग्य है कि मैं भजन-कीर्तन के लिए समय नहीं निकाल पाता इसीलिए मेरा नाम यहां नहीं है.
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उस दिन राजा के मन में आत्मग्लानि तो हुई फिर भी पुनः परोपकार की भावना के साथ दूसरों की सेवा में लग गए.
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कुछ दिन बाद राजा फिर वन की तरफ निकले तो उन्हें उसी देव के फिर से दर्शन हुए. इस बार भी उनके हाथ में एक पुस्तक थी. लेकिन इस पुस्तक का रंग और आकार पहले वाली पुस्तक से अलग था. यह पुस्तक पहली से काफी छोटी भी थी.
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राजा पूछा- प्रभु आज कौन सा बही खाता आपने निकाला है ?
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देव ने कहा- इसमें उनका नाम लिखा है जो ईश्वर को सबसे अधिक प्रिय हैं.
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राजा ने कहा- कितने भाग्यशाली होंगे वे लोग. निश्चित ही वे दिन रात भगवत-भजन में लीन रहते होंगे. क्या इसमें कोई मेरे राज्य का भी नागरिक है ?
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देवता ने बहीखाता खोला. पहले पन्ने पर पहला नाम राजा का ही था.
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राजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछा- महाराज, मेरा नाम इसमें कैसे लिखा हुआ है. मैं तो मंदिर भी कभी-कभार ही जाता हूं ?
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देव ने कहा- राजन ! इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? जो निष्काम होकर संसार की सेवा करते हैं, जो परोपकार में अपना जीवन अर्पण करते हैं.
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जो मुक्ति का लोभ त्यागकर प्रभु के निर्बल संतानों की सेवा करते हैं, उन त्यागी महापुरुषों का भजन स्वयं ईश्वर करता है.
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इसलिए हे राजन ! तुम मत पछताओ कि तुम पूजा-पाठ नहीं करते. लोगों की सेवा करके तुम असल में भगवान की ही पूजा करते हो.
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परोपकार और निःस्वार्थ लोकसेवा किसी भी उपासना से बढ़कर हैं. भगवान दीनदयालु हैं. उन्हें खुशामद नहीं भाती बल्कि आचरण भाता है.
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सच्ची भक्ति तो यही है कि परोपकार करो. दीन-दुखियों का हित करो. अनाथ, विधवा, किसान व निर्धन सताए जा रहे हैं. इनकी यथाशक्ति सहायता और सेवा यही परम भक्ति है.
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राजा को आज देव के माध्यम से बहुत बड़ा ज्ञान मिल चुका था और अब राजा भी समझ गया कि परोपकार से बड़ा कुछ भी नहीं और जो परोपकार करते हैं वही भगवान के सबसे प्रिय होते हैं।
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मित्रों, जो निःस्वार्थ भाव से लोगों की सेवा करने के लिए आगे आते हैं, परमात्मा हर समय उनके कल्याण के लिए यत्न करता है.
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रामचरित मानस में कहा गया है-
परहित सरिस धरम नहीं भाई.
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अर्थात दूसरों की सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं.
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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राधे राधे ।