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(((((((( कन्हैया के आभूषण ))))))))

एक भागवत कथा वाचक ब्राह्मण एक गांव में कथा वांच रहे थे. उस दिन उन्होंने नंदलाल के सौंदर्य, उनके आभूषणों का बड़ा मोहक वर्णन किया.
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उधर से गुजरता एक चोर भी कथा सुनने बैठ गया था. उसने जब आभूषणों के बारे में सुना तो उसे लालच आया.
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उस दिन की कथा समाप्त होने पर पंडितजी को खूब दक्षिणा मिली जिसे गठरी बनाकर वह लिए चले. जरा सुनसान में पहुंचे तो चोर सामने आ गया.
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उसने पूछा कि ये श्याम मनोहर कहां रहते हैं. मुझे उनके घर से गहने चुराने हैं. पता बताओ.
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पंडितजी डर गए. उन्हें अपने सामान का भय हुआ. सो उन्होंने बुद्धि लगाई और कहा कि उनका पता मेरे झोले में लिखा है. यहां अंधेरा है थोड़ा उजाले में चलो तो देख के बताऊँ..
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चोर तैयार हो गया. उसे जल्दी थी. पंडितजी ने और चतुराई की. अपना बोझा उसके सिर पर लाद दिया और ऐसे स्थान पर पहुंचकर रूके जहां लोगों को आवाजाही ज्यादा थी.
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फिर उन्होंने थैले में से पोथी खोली, देखने का स्वांग करते रहे. विचारकर बोले वृंदावन चले जाओ. मुझे जब मिले थे तो उन्होंने वृंदावन ही बताया था.
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चोर संतुष्ट हो गया और पंडितजी से आशीर्वाद लेकर विदा हुआ. चोर रास्ता पूछता, भटकता वृंदावन चल पड़ा.
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रास्ते में उसने बड़ी तकलीफें सहीं. जहां-जहां भी कन्हैया के मंदिर थे, उसमें दर्शन को गया. दर्शन क्या वह तो उनके आभूषणों को देखने जाता कि आखिर ऐसे आभूषण होंगे कन्हैया के पास.
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आभूषण निहारने में उसने इतने मंदिरों में भगवान की इतनी छवि देख ली कि उसे खुली आंखों से भी प्रभु नजर आते. रात को मंदिरों में ठहर जाता और वहीं कुछ प्रसाद खा लेता.
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माखन चोर भगवान आभूषण चोर पर रीझ गए. चोर के मन में प्रभु के आभूषणों के प्रति कामना ही भा गई.
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गोपाल उसे जगह-जगह दर्शन देते तरह-तरह के आभूषण से सजे बालकों के रूप में लेकिन वह उन्हें नहीं लेता. उसे तो असली गोपाल के आभूषण चाहिए थे.
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चोर परेशान कि कब वह कन्हैया के धाम पहुंचे और कन्हैया परेशान कि वह इतनी दूर क्यों जा रहा है जब मैं राह में ही उसे सारे आभूषण दे रहा हूं.
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भगवान को भक्त से प्रेम हुआ तो भक्त के मन में बसा चोरी का भाव अनुराग में बदल गया.
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चोर गोकुल पहुंच गया. एक स्थान पर नदी किनारे भगवान ने उसे गाय चराते उसी रूप में दर्शन दिया जो उसने मंदिरों में देखी थी.
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जितनी छवि देखी थी सारी एक-एक करके दिखा दी. आभूषणों के साथ. चोर उनके पैरों में गिर पड़ा.
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प्रभु ने आभूषण उतारकर दिए और बोले- लो तुम इसके लिए व्यर्थ ही इतनी दूर चले आए. मैं तो कब से तुम्हें दे रहा था.
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चोर बोला- आपको देख लिया तो आभूषणों की चमक फीकी पड़ गई. अब तो आपको चुराउंगा.
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भगवान हंसे- मुझे चुराओगे, कहां लेकर जाओगे ?
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चोर बोला- वह तो नहीं पता सोचकर बताता हूं लेकिन आभूषण नहीं चाहिए. अब तो मुझे आपकी ही लालसा है. चोर सोचता रहा, प्रभु हंसते रहे. चोर ने बुद्धि दौड़ा ली लेकिन कोई स्थान ही न सूझा.
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उसे चिंता थी कि इतनी मेहनत से वह इन्हें चुरा ले जाए और फिर सुरक्षा न कर पाए तो कोई और चुरा लेगा.
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सोचते-सोचते उसे नींद आने लगी. उसको उपाय सूझा – जब तक मैं निर्णय नहीं कर लेता कि आपको कहां रखूंगा, आप मुझे रोज दर्शन देते रहो जिससे मुझे भरोसा रहे कि मेरी चोरी का सामान सुरक्षित है.
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प्रभु खूब हंसे. उन्होंने कहा- ठीक है ऐसा हो होगा लेकिन तुम्हें कुछ आभूषण तो लेना होगा.
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मना कर दिया. प्रभु रोज शाम उसे दर्शन देते. वह अपने गांव लौट आया.
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पंडितजी कथा वांच रहे थे. उन्हें सारी बात बताई. यकीन न हुआ तो शाम को जब प्रभु दर्शन देने आए तो उनका एक आभूषण मांगकर दिखाया और साबित कर दिया.
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पंडितजी बोले- भाई चोर असली साधू तो तू है. मैं तो कान्हा का नाम लेकर बस कथाएं सुनाता रहा और आजीविका जुटाता रहा लेकिन तुमने तो उन्हें ही जीत लिया.
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यह कथा कल्पना की है लेकिन जितने भी भक्त शिरोमणि हुए हैं सबका जीवनवृत देख लीजिए. उन्हें हरिदर्शन तभी हुए जब उन्होंने हरि से मिलने की जिद ठान ली.
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हरि कभी नहीं कहते कि अपने कर्तव्यों को छोड़कर मुझे भजो. वह कहते हैं अपने उद्देश्य पर दृढ़ रहो और मन से भक्ति करो. तुम्हारी नीयत पर पड़ी थोड़ी बहुत धूल तो मैं साफ कर ही दूंगा जैसा चोर का किया.
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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मेरे कान्हा की ऐसी ही और कथायें पड़ने के लिये इस पेज़ को लाईक करें...
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