♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
♻♻♻♻♻♻
श्री महाराज जी तो अपने जन को लेने स्वयं भी चले जाते हैं। सुश्री ब्रज भास्करी देवी की माता संतों को अपने यहां घर में बुलाया करती थी। श्री महाराज जी भी वहाँ पँहुच गये। प्रारंभ में सुश्री ब्रज भास्करी जी (तब किशोरावस्था में) को महाराज जी में कुछ दृष्टिगोचर न हुआ बल्कि उन्होंने श्री महाराज जी को तंग करना प्रारंभ कर दिया, उनको अपने यहाँ रुकने पर विरोध प्रकट करने लगी। बिजली पंखा बन्द कर देती थी। किन्तु श्री महाराज जी को तो अपने जन को ले जाना था वहां से। वहां कई दिनों तक रूकने लगे यहां तक कि बुखार चढा लिया। जैसा कि सामान्य हिन्दू परिवार में होता है यह दुर्गा सप्तशती पाठ, व्रत पूजा उपवास आदि करती थी, दुर्गा जी इनकी इष्ट थीं। किन्तु भक्ति क्या है, इसका आभास तो इन्हें श्री महाराज जी के संपर्क में आने पर ही हुआ। एक बार जब यह बांके बिहारी जी का दर्शन कर रहीं थी तो उन्हें साक्षात् अनुभव हुआ कि श्री महाराज जी व बाँके बिहारी एक ही हैं। इसके बाद विरोध तो लोप ही हो गया l अब तो ये श्री महाराज जी को साक्षात् भगवान् मानने व जानने लगीं। श्री महाराज जी के बाल सुलभ सरल स्वभाव पर ये मुग्ध थी। विशेषकर श्री महाराज जी का ठहाका लगाकर हँसना। बहुत पढने के बाद भी इनको तो हरि गुरु सेवा में ही रूचि थी। जिसके लिये ये विकल रहने लगीं।
1981 दिसम्बर मे इनके मां बाप से श्री महाराज जी ने कहा, यह हरि गुरु की धरोहर थी, अब इसे अपनी सेवा में रखूँगा, और इन्हें वेदादि के अध्ययन के लिए मनगढ़ बुला लिया।
1982 में होली के अवसर पर इनको सन्यास वस्त्र और वास्तविक नाम ब्रज भास्करी मिल गया। ये मनगढ़ में ही रहना चाहती थी। इनको अकेले हांगकांग प्रचार करने के लिए भेज दिया जाता है। वहां सात दिनों तक इन्होंने खाना नहीं खाया। देवी जी शीघ्र श्री महाराज जी के पास लौट जाना चाहती थी।
कृपासागर श्री महाराज जी ने फोन पर इनसे अनुरोध किया। एक भीख दे दो, खाना खा लो, तब जाकर इन्होंने अन्न ग्रहण किया। ऐसे ही एक बार श्री महाराज जी मनगढ़ से कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहे थे, इन्होंने खाना आदि छोड दिया, किंतु उन्हीं दिनों श्री महाराज जी (जब मनगढ़ में नहीं थे) ने इनको विलक्षण अनुभव दिया।
मनगढ़ की प्रत्येक वस्तु चिन्मय दिखती थी सर्वत्र श्याम सुंदर एवं श्री महाराज जी ही दृष्टिगोचर होते थे। तब इन्होंने गोपाल बाबा से दही माँगी। गोपाल बाबा नाचने लगे लाली ने मुझसे दही माँगा, विभोर थे। कि महाराज जी के एक प्रिय जन ने कुछ माँगा। यह गोपाल बाबा की भक्ति देखकर नतमस्तक हो गई। भक्ति क्या होती है इसका आभास इन्हें तब हुआ। उसके बाद तो ये अपनी डिग्री आदि को धिक्कारने लगी।
प्यारे प्यारे श्री महाराज जी की जय l
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
राधे राधे ।