आत्मीय पत्र
श्री महाराज जी द्वारा साधकों को लिखे गये पत्रों का अंश
आशा है तुम अपने कृपालु को भूले नहीं होंगे। भूल भी नहीं सकते। साहस हो तो भुला कर देखो। वे स्वयं भी तो अपनी याद दिलाते रहते हैं। मैं आज ही प्रयाग आया हूं। वज्र हृदय होते हुये भी मेेै तुम्हें भुला नहीं पाता हूं। तुम भी अपने कृपालु को अपना बनाकर भूल मत जाना। अपनी आत्मा के समान उसे भी अपने साथ सदा रखना। मैं सदा सदा तुम्हारा हूँ।
हमारी इच्छा में इच्छा रखने की बात को जानकर बड़ा हर्ष हुआ। यही तो साधक की कसौटी है।
............. के यहाँ ठहरने की बात तो परिहास मात्र ही थी। तुमने अतिशय प्यार के कारण दूसरा कुछ समझ लिया और अगर कहीं ठहरेंगे भी तो 2 या 3 दिन को ही होगा। शरद्पूर्णिमा के पूर्व ही आऊँगा। तब प्रोग्राम के बारे में बातें करूँगा।
साधना सामूहिक या व्यक्तिगत दोनों ठीक हैं किन्तु अपने अपने संस्कार के कारण अपने प्रत्यक्ष लाभ पर निर्भर है।
भक्त चरित्र भी वही वस्तु है, जिससे लाभ हो वही ठीक है।
किसी सांसारिक व्यक्ति के रूप, शब्द आदि में लगाव करते हुए, ईश्वरीय भाव में आना कठिन एवं हानिकारक हो सकता है। किन्तु सांसारिक वस्तु में यह होना ठीक है।
ll सबसे राधे राधे ll
प्रिय !
शरण्य के प्रति जीव की नित्य शरणागति ही साधना है एवं शरणागति द्वारा शरण्य की नित्य सेवा ही जीव का चरम लक्ष्य है।
अपने इष्टदेव की नित्य सेवा ही तुम्हारा चरम लक्ष्य है।
कर्म मात्र करते हुये फल की इच्छा न करते हुए असंग व्यवहार करना है।
ll तुम्हारा कृपालु ll
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय
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राधे राधे ।