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प्रैक्टिकल दो प्रकार का रूपध्यान करना है, किशोरी जी का, ठाकुर जी का।

एक रूपध्यान - वे सामने खड़ी हैं अब हम राधे ! कहने जा रहे हैं। संसार में कोई भिक्षुक तभी तो भीख माँगेगा जब भीख देने वाला सामने खड़ा हो। तो पहले किशोरी जी को खड़ा किया, फिर आप उनकी निष्काम सेविका बनना चाहती हैं, उनका प्रेम चाहती हैं, जो कुछ आपकी कामना है वो सामने खड़ा करके तब तो कहोगे उनसे। इसलिये सामने खड़ी हैं, मैँ देख रहा हूँ, ऐसी भावना बनाओ। ये ये श्रृंगार है, ये उनका स्वरूप है, उनके रोम-रोम से ब्रज रस चू रहा है, उनके शरीर से ऐसी सुगन्ध आ रही है कि परमहंस अपनी समाधि भूल जाता है, ऐसी लाइट निकल रही है, उनके चिदानन्दघन तनु से। ये सब भावना बनाओ सामने खड़ा करके, ये मिलन का रूपध्यान है।
दूसरा रूपध्यान- वियोग का। ये ध्यान सर्वश्रेष्ठ है, किशोरी जी खड़ी तो हैं बोल नहीं रही हैं, मैँ इतना अधम हूँ । आप तो पतित पावनी हैं फिर मुझसे, मेरे ऊपर इतनी कृपा और क्योँ नहीं कर रही हैं कि प्रत्यक्ष सामने हमसे बात करें, अपना प्यार दें, अपनी दासी बनावें। ये तड़पन, व्याकुलता, परमव्याकुलता, रहा न जाय जैसे मछली को पानी से अलग कर दो तो पानी के लिये तड़पती है, ऐसा तुम्हारा हो जाय मन का हाल।
ये भावना बनाना और इससे क्या होगा ? इससे तुम्हारे अन्तःकरण का विकार आँसू बन कर निकलेगा, तब मन शुद्ध होगा।

#निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य_जगद्गुरुत्तम_श्री_कृपालु_जी_महाराज।

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