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श्रीनवद्वीपधाम माहात्म्य। अष्टादश अध्याय 2

परमार्थ के विषय मे अंधे व्यक्ति श्रीनवद्वीप तथा श्रीब्रज में जो निगूढ़ सम्बन्ध है अर्थात वह एक होने पर भी दो रूपों में प्रकाशित हैं नहीं समझ पाते। हे जीव श्रीकृष्ण तथा श्रीगौर के सम्बंध में भी यही रहस्य है। श्रीगौरसुन्दर ही मधुर रस में श्रीराधाकृष्ण के रूप में आविर्भूत होते हैं। हे वल्लभनन्दन थोड़े ही दिन में रूप तथा सनातन तुम्हें इस विषय मे बताएंगे। श्रीमन महाप्रभु जी ने तुम्हें ब्रजवास का अधिकार दिया है इसलिए तुम ब्रज जाने में अधिक विलम्ब मत करो। इतना कहकर श्रीनित्यानन्द प्रभु ने उसके सिर पर अपना चरणकमल रखकर उसमे शक्ति संचरित कर दी।

   म्हाप्रेम में मत्त होकर श्रीजीव गोस्वामी बहुत देर तक मूर्छित होकर श्रीनित्यानन्द प्रभु के चरणों मे पड़े रहे। चेतना प्राप्त होने पर भी वह श्रीवास आंगन की रज में लौटने लगे। उनकी देह में सात्विक विकार शोभा पाने लगे। श्रीजीव क्रंदन कर कहने लगे कि मैं अपने दुर्भाग्य के कारण ही महाप्रभु जी द्वारा नदिया में किये विहार का दर्शन नहीं कर पाया। जगत के जीवों का उद्धार करने हेतु ही महाप्रभु जी ने यह लीला की थी। परंतु उन लीलाओं का दर्शन न होने के कारण मेरे दिन व्यर्थ ही बीत रहे हैं। वृद्ध वैष्णव श्रीजीव को आशीर्वाद देने लगे। हाथ जोड़कर श्रीजीव ने सबसे कहा कि आप सब पूज्य जन मेरा कोई अपराध ग्रहण नहीं करना। आप सभी लोग महाप्रभु जी तथा श्रीनित्यानन्द प्रभु जी के दास हैं , इस शुद्र जीव पर ऐसी दया करें जिससे मेरी श्रीगौरसुन्दर के चरणों मे रति हो जाये तथा श्रीनित्यानन्द प्रभु जन्म जन्म में मेरे स्वामी बनें। मैंने बाल्यकाल में ही ग्रह त्याग किया है , मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ, अब आप सब ही मेरे बन्धु हैं। वैष्णव कृपा के बिना श्रीकृष्ण की प्राप्ति सम्भव नहीं ईसलिये आप सबसे विनय है कि मुझे अपने चरणों की रज प्रदान करें। इतना कहकर श्रीजीव ने सबके चरणों मे प्रणाम किया तथा स्तुति करते हुए तथा श्रीनित्यानन्द प्रभु की अनुमति से श्रीजगन्नाथ मिश्र के घर जाकर सचिमाता के चरणों मे गिर व्याकुल हृदय से ब्रज जाने की आज्ञा मांगी।श्रीसचिमता ने अपने चरणों की रज देकर श्रीजीव को आशीर्वाद प्रदान करते हुए विदा किया।

   प्रभु की आज्ञा को ही सर्वस्व जान श्रीजीव ने हा गौरांग ! हा गौरांग ! कहते हुए क्रंदन करते करते भगीरथी को पार किया। कुछ देर चलने के उपरांत श्रीजीव ने अनन्त महिमाशाली श्रीनवद्वीपधाम की सीमा को पार किया । वहां उन्होंने श्रीनवद्वीपधाम को शाष्टांग दण्डवत की तथा श्रीवृन्दावन की ओर प्रस्थान किया। उस समय श्रीजीव के हृदय में ब्रजधाम , श्रीयमुना  तथा रूप सनातन स्फुरित होने लगे। मार्ग में रात्रि के समय स्वप्न में उन्हें गौरहरि के दर्शन हुए जो उन्हें मथुरा जाने को कहे। महाप्रभु जी ने कहा तुम रूप तथा सनातन मुझे बहुत प्रिय हो। तुम सब मिलकर भक्तिशास्त्रों को प्रकाशित करो। मेरी श्रीराधाकृष्ण रूप में युगल सेवा ही तुम्हारा जीवन हो ।तुम लोग सदैव ब्रजलीला के दर्शन करोगे।स्वप्न देखकर श्रीजीव बहुत आनन्दित हुए तथा द्रुतगति से ब्रजधाम की ओर चलने लगे। ब्रज में जाकर उन्होंने श्रीमन महाप्रभु जी की इच्छा अनुरूप कार्य किये।

   श्रीलभक्ति विनोद ठाकुर जी स्वयम को दीन हीन तथा सर्वथा असमर्थ जानकर इस ग्रंथ के लेखन को अपना सामर्थ्य न मान अपने इष्ट की कृपा अनुभव कर रहे हैं तथा सभी वैष्णव चरणों से गौरहरि की प्रेम प्राप्ति की आशीष चाहते हैं। उनकी अभिलाषा है कि उनका श्रीनवद्वीप से सम्बन्ध जुड़ जाए तथा उन्हें वहीं वास मिले। वैष्णव कृपा के बिना विषयरूपी गड्ढे में पड़ा हुआ कीट , दुराचारी , भक्तिहीन , काम क्रोध में रत्त तथा माया का दास होता है। वह स्वयम को गौरसुन्दर से सम्बन्द्ध हीन मानकर वैष्णव कृपा चाहते हैं। अंत मे श्रील ठाकुर महाशय कुलदेवी प्रौढा माया तथा वृद्धशिव से भी कृपादृष्टि के लिए विनय करते हैं। श्रीनवद्वीपधाम वासी भक्तों की चरण रज की कामना करते हैं। सभी से पुनः पुनः विनय करते हैं कि सब उनपर कृपा करें जिससे उनके हृदय में श्रीमन महाप्रभु के चरणकमलों का अनुराग प्राप्त हो। सामर्थ्य न होने पर भी उन्होंने श्रीनित्यानन्द प्रभु तथा श्रीजाह्वा देवी के चरण आश्रय से यह गुणानुवाद किया है। यह ग्रंथ श्रीनवद्वीप तथा श्रीनिताई गौर नाम से भरा हुआ है इसलिए यह परम पवित्र है तथा रचना के दोष से कदापि दोषी नहीं है।इस ग्रंथ के पाठ से सभी गौरभक्त परिक्रमा के वास्तविक फल को अर्जन करें। परिक्रमा करते समय जो इस ग्रंथ की आलोचना करता है , उसे परिक्रमा करने का सौ गुणा फल प्राप्त होता है, यही शास्रों की वाणी है।

  श्रीनित्यानन्द प्रभु तथा श्रीजाह्वा देवी के सुशीतल चरण कमलों के आश्रय से श्रीनवद्वीपधाम का गुणानुवाद हुआ है।

अष्टादश अध्याय समाप्त

ग्रंथ लेखन सेवा विश्राम ।।।

जय निताई जय गौर

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