श्री राधा का श्रृंगार वास्तव में ही विलक्षण है क्योंकि उनका श्रृंगार स्वयं श्यामसुंदर ही तो हो गए हैं। यह श्रृंगार भी ऐसा विलक्षण है जिसका उन्माद क्षण क्षण बढ़ रहा है,ऐसा विलक्षण श्रृंगार जिसमें क्षण की भी तृप्ति नहीं है। यही अतृप्ति ही इस श्रृंगार को नवनवायमान रूप देकर श्रीप्रिया को उनके प्रियतम से ही श्रृंगारित करने में अतृप्त है। श्रीप्रिया यमुना जल में हैं जिससे उनकी केश राशि जल में कुंडल बन तैर रही है। श्रीराधा अपनी केशराशि को स्पर्श करती है तो उनके केशों का वर्ण ही श्यामसुंदर हो गए हैं। स्वयं अपने केशों को छूकर ही श्रीप्रिया स्पंदित हुई जा रही है जैसे स्वयम श्यामसुन्दर ने ही उनका आलिंगन कर लिया हो।
जल से बाहर आने के पश्चात उन्मादिनी सी हुई श्रीप्रिया की दृष्टि अपनी नूपुर पर पड़ती है। जैसे ही नूपुर के घुँघरू खनखन करते श्रीप्रिया को कृष्ण कृष्ण ही सुन रहा था अपने सन्मुख अपनी चरणसेवा को आतुर श्रीप्रियतम को ही पाती है, जिनका समस्त धन वैभव इन्हीं चरणों की सेवा लालसा हो चुका है। आपने प्रियतम की इस आतुरता को देख श्रीराधा उन्हें अपने हृदय से लगा लेती हैं। श्रीराधा अभी प्रियतम के आलिंगन में उन्हें सुख प्रदान करने की चेष्ठाएं करती है। चेष्ठा इसलिए क्योंकि श्रीप्रिया स्वयं को प्रियतम की सेविका मानती है तथा अपने को प्रियतम की सेवा के लिए भी पूर्णतः अयोग्य समझती है। अपने किसी भी प्रयास द्वारा प्रियतम को सुख दे सकूँ यही व्याकुलता रहती सदा उनमें।
जैसे ही अपने कंगन पर श्रीराधा की दृष्टि पड़ती है तो कंगन की खन खन भी मोहन ही हो गए। श्रीराधा का प्रत्येक आभूषण श्रीश्यामसुन्दर ही तो हैं। सखी प्रिया जु का श्रृंगार कर रही है परंतु प्रिया जु का श्रृंगार किसी आभूषण प्रसाधन से न हो श्यामसुंदर ही हो रहे हैं। उनके ललाट पर सजी लाल वर्ण की बिंदिया श्रीप्रियतम का स्नेह ही तो है ।सखी प्रिया जु के लिए वस्त्र लाती है तो श्रीप्रिया के मुख से एक ही वाक्य स्फुरित होता है नीलमणि। जैसे श्रीराधा के नीलवर्ण वस्त्र स्वयम नीलमणि ही उनका सुख हो रहे हैं।
सखी स्वामिनी जु का श्रृंगार करने को काजल लाती है तथा प्रेम से श्रीप्रिया के नेत्रों में आंजती है। जिन नेत्रों में सदा सर्वदा श्यामसुंदर की ही छवि बसी रहती हो, जिनके चांचलय से श्रीप्रियतम भी पुलकित हो जाते हैं स्वयम श्यामसुंदर ही तो इन मृगनेत्रों का श्रृंगार बने हुए हैं। सखी के दर्पण दिखाने पर भी श्रीराधा स्वयम को न देख अपने प्रियतम श्रीमनमोहन की ही माधुरी को निहार रही हैं क्योंकि वही तो उन नेत्रों का वास्तविक श्रृंगार हैं। श्रीप्रियाप्रियतम के इस अद्भुत रस श्रृंगार को देख सभी सखियाँ मूक सी हुई खड़ी रहती हैं तथा इस श्रृंगार में सदा नवलता देखने को ही आतुर रहती हैं।
प्यारी को श्रृंगार बन्यो नित मनमोहन सुंदरश्याम
केश राशि को बन्यो कुंडल तिलक रक्त ललाम
नूपुर की ध्वनि पिय नाम उच्चरै सेवातुर पिय दीखै
भामिनी तुरँत उर सों लगायौ मोहन वसन सरीखे
कोमलांगी कंकन जोई धारयो मनमोहन ही मेलत
कण्ठ हार सों धारयो पिय को कियो बड़ो अठखेलत
बाँवरी प्यारी नैनन माँहिं आंजे पिय रँग को काजर
नीलवर्ण परिधान होय रहयों नीलमणि श्याम मनोहर
रसमय छवि देखत ही सखी सब प्रेम विवश उमगावै
बाँवरी दासी अपनी प्यारी को नित पिय श्रृंगार धरावै
अंग सुअंग रमयो पियप्यारी सखियन मोद मनावै
प्यारी को श्रृंगार ही पिय , नित नित चाव बढ़ावै
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राधे राधे ।