श्री राधिका जू का श्रृंगार करें हम , प्यारी जू का श्रृंगार बनें हम ॥कितना सुंदर भाव है ॥ पर वस्तुतः श्री किशोरी का श्रृंगार है क्या , क्या भाव है क्या सेवा है क्या समर्पण है क्या आत्मनिवेदन है वास्तव में यह श्रृंगार ॥ श्री प्यारी का श्रृंगार सेवा की चरम पराकाष्ठा है ॥ प्रेम के समस्त स्तरों को पार कर प्रेमी जब श्री राधिका की कृपा से उन्हीं के दिव्य प्रेम भावों को धारण करने की पात्रता पा लेता है तब यह सेवा भाव उदय होते हैं हृदय में ॥उदय होतें हैं हृदय में ये कथन इस प्राकृत जगत में समझने के लिये कहा गया है अन्यथा यह भाव ही स्वरूप हो जाता है प्रेमी का ॥ अर्थात् उसमें ये भाव नहीं वरन वही भाव स्वरूप हो जाता है ॥ यही तो भावदेह से सेवा का स्वरूप भी है ॥ पूर्ण आत्मसमर्पण हैं ये सेवा भाव ।। न केवल समर्पण की महान भावना वरन प्रियतम सुख की परम तृष्णा ही साकार रूप हैं ये ॥ श्री किशोरी के दिव्य श्रृंगार वास्तव में प्रियतम सुख की दिव्य लालसायें ही तो हैं जो दिव्य प्रेम की साकार मूर्ति स्वरूपा श्री निकुंज रस मूर्तियों द्वारा प्रिया प्रियतम सुखार्थ ही नित्य आत्मनिवेदित की जातीं हैं ॥ एक एक भूषण जो श्री प्रिया के श्री अंग पर शोभित है वह तत्सुख की महान लालसा है ॥ प्रत्येक सखि , मंजरी इन सेवा भावों का ही तो मूर्तवंत रूप है ॥और श्री प्रिया को श्रृंगार रूप ये स्वयं को ही अर्पित करतीं हैं नित्य ॥ श्री प्रिया के सुअंगो पर सजने वाली ये दिव्य रसमयी भावनायें प्रिया लाल जू के सुख में अभूतपूर्व वृद्धि करतीं हैं ॥ यह सब अनन्त प्रेम भाव हैं जिनका ओर छोर है ही नहीं ॥ श्री प्रिया क्या हैं प्रियतम सुख तृष्णा का अनन्त सिंधु ही तो ॥और ये समस्त सखियाँ मंजरियाँ सहचरियाँ आदि उसी अनन्त प्रेम पिय सुख सिंधु की अनन्त लहरें ॥श्री किशोरी दिव्य भास्कर हैं प्रेम का और ये सब उनकी अनन्त रस उर्मियाँ ॥ तो जो अनन्त भाव श्री राधिका के नित्य स्व रूप हैं समग्रता में वही तो भिन्न भिन्न स्वरूपों में यहाँ खेल रहे ॥अर्थात् श्री प्रिया में भी अवस्थित तथा प्रत्यक्ष इन निकुंज परिकरों (सहचरी, किंकरी सखी आदि )रूपों में लीलायमान मात्र प्रिया प्रियतम सेवार्थ ही ॥ अनन्त भाव नित्य ॥ पर हृदय कहता है जिस दिन जिस भाव की श्रृंगार सेवा उस दिन वे भाव ही स्वीकार ॥ये सेवायें भी परम विलक्षण परम रसमयी परम विचित्र होतीं हैं ॥ मन की कल्पना शक्ति से परे की यह ॥ युगल के परस्पर रस में सुधि बुधि खो रस जडता होने पर यही सेवा भावनायें उन्हें इससे बाहर लातीं हैं ॥ श्री प्रिया के सुअंगो पर सजे सुंदर भावरूप भूषण निरख प्रियतम को अपार सुख होता है क्योंकि ये उन्हीं के प्रेम के चरम उत्कर्ष रूप ही तो हैं ॥ ना केवल भूषण वरन अन्य समस्त श्रृंगार भी जैसे अंगराग , चित्रावली जावक रचना मेंहदी कज्जल लालिमा आदि सभी तो प्रेम रस के जगमगाते रत्न हैं जो प्रियतम को अपने रसमय प्रकाश से रसमय केली के लिये आमंत्रित करते रहते हैं ना केवल आमंत्रित करते हैं वरन इनका दर्शन इनका स्पर्श प्रियतम को अति रसदान करता है ॥ ये प्रेममयी सेवा लालसायें श्री प्रिया से पृथक रूप प्यारे की सेवा नहीं चाहती वरन श्री प्रिया में स्वयं को अर्पित कर उनकी रस सेवा में सहभागिनी सहयोगिनी होने में सार्थकता जानती हैं ।जब श्री प्रिया को ये सुंदर दिव्य श्रृंगार धारण कराया जाता है तो वे इन समस्त सेवा भावों से रस भावों को उस समय की रस केली में मानों स्वीकार कर लेतीं हैं , यद्यपि ये उन्हीं के निज स्वरूप भाव हैं परंतु उस केली में कौनसे भाव सेवा देंगे ये वे महाभाव सिंधु कब सोच पातीं हैं ॥ ये तो इन मंजरियों सखियों की ही दायित्व है प्यारी को नित्य नवीन भावों से अलंकृत कर इन सब पर कृपा करने का ॥ श्री प्रिया तो सहज सहर्ष स्वीकार करतीं हैं इन प्रेम भावनाओं को नित्य ॥ तृषित ।। जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।।
सभी स्नेही मानसप्रेमी साधकजनों को हमारी स्नेहमयी राम राम | जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 116से आगे ..... चौपाई : सुनहु...
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राधे राधे ।