(स्वच्छारति) मानवशरीर की एक अभौतिक इन्द्रिय का नाम चित्त है,जिसे चेत अथवा मन भी कहा जाता है।यह अभौतिक इसीलिये है कि इसका हस्त पादादि इन्द्रियों की तरह कोई बाह्यरूप नहीं है। चित्त किसे कहते हैं,इसका स्पष्ट लक्षण,महर्षि पतञ्जलि ने योगदर्शन में भी नहीं किया है।केवल चित्तवृत्तियों के निरोध का नाम योग है,ऐसा उल्लेखमात्र किया है। हाँ,इसकी समानता अवश्य कुछ तत्त्वचिन्तकों ने की है।कलिपावनावतार श्रीचैतन्यमहाप्रभु ने इसे दर्पण के समान माना है। श्रीरूपगोस्वामी ने स्फटिकमणि के समान कहा है।स्वामीविवेकानन्द ने शान्तसरोवर के तल के समान बताया है। हमारे चित्त की सबसे बडी़ विशेषता यह है कि इसके सम्पर्क में जैसा भी भाव आता है उसी में अनुरंजित हो जाता है।जीवन की प्रत्येक क्रिया का प्रभाव इस पर पड़ता है।यहाँ इसका दिग्दर्शन केवल इस हेतु किया गया है जिससे स्वच्छारति को समझा जा सके।यहाँ रतिशब्द को भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है। रति,एक प्रकार का भाव है जो स्थायीरूप में सदैव विद्यमान रहता है।यह रति आस्वाद्यस्वरूप है। इसी के कारण विभिन्न भाव हमारे चित्तदर्पण को अनुरंजित करते हैं। भक्तिपरम्परा में अनेक प्रकार के भक्तों का संग करने के कारण अनेक प्रकार के साधनों के फलस्वरूप साधकों में जो रति,, विविध प्रकारता को प्राप्त करती है,उसे स्वच्छारति कहा जाता है। स्फटिकमणि के सामने जिस रंग की वस्तु रखी जाये तब वह उसी रंग की प्रतीत होती है,उसी प्रकार जब जिस भाव के भक्त में आसक्ति उत्पन्न होती है,तब जो रति उसी रूप को धारण कर लेती है,उसे स्वच्छा कहते हैं।। तात्पर्य यह है कि विभिन्न देवों,विभिन्न साधनों और विभिन्न अनुयायियों के कारण किसी एक इष्टदेव में दृढरति नहीं होती है।जहाँ महादेव देखे वहाँ महादेव विषयक रति,भाव हो जाता है,और जहाँ कृष्ण देखे वहाँ कृष्ण विषयक रति,भाव जाग्रत हो जाता है।उसी प्रकार जिस देवोपासक भक्त के सम्पर्क में आये उसी के प्रति हम आकर्षित हो जाते हैं,तब हमारे चित्त में वही देवरूप प्रकाशित होने लग जाता है। कहाबत है--गंगा गये तो गगादास बन गये और यमुना गये तो यमुनादास बन गये,इससे किसी एक देव के प्रति श्रद्धा,विश्वास,रति और भाव स्थिर नहीं हो पाता।अतः आत्मकल्याणार्थी को अपना एक की इष्टदेव चुन लेना चाहियेउसी से अभीष्ट फल की प्राप्ति होगी।हरे कृष्ण (तत्तत्साधनतो नानाविधभक्तप्रसंगतः।साधकानां तु वैविध्यं यान्ती स्वच्छा रतिर्मता।।.यदा यादृशि भक्ते स्यादासक्तिस्तादृशं तदा। रूपं स्फटिकवद्धत्ते स्वच्छाऽसौ तेन कीर्तिता।।)
सभी स्नेही मानसप्रेमी साधकजनों को हमारी स्नेहमयी राम राम | जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 116से आगे ..... चौपाई : सुनहु...
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राधे राधे ।