सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

हम अपने गुरु और इष्ट के प्रति पल पल उत्तरदाई है |

"पुज्यनियां मां :- हमारा बिचार , हमारी वाणी , हमारा व्यवहार , हमारा कर्म , हमारी सोंच , हमारे व्यक्तित्व का आईना है |
हम अपने गुरु और इष्ट के प्रति पल पल उत्तरदाई है | गुरु के अथक परिश्रम के परिणामस्वरुप भी अगर हम नही बदल रहें है तो ऐ हमारी सबसे बड़ी लापरवाही है |
हम अपने अहंकार के फलस्वरुप अगर किसी भी व्यक्ति, जीव और यहां तक की एक भी वनस्पति का  नुकसान पहूँचाते है , किसी को भी तक़लिफ देते हैं तो उससे हमारे गुरु को , हमारे इष्ट को बहूत चोट पहुँचता है | उनको दु:ख होता है |

महाराज जी ( कृपालु जी महाराज ) का सिद्धान्त है कि "दुसरे को दु:ख देना, कष्ट देना , मन  से , कर्म से , या वाणी से बहुत बड़ा पाप है | दुसरे में दोष देखना सबसे बड़ा पाप है । हमें दोष केवल अपने में ढुंढना चाहिए | ऐसा दीन और नम्र बनो की तुम्हारी दीनता देख कर दुसरा पानी पानी हो जाए , अपने ज्ञान का भी अहंकार  कभी मत करो , क्योकि यह ज्ञान भी तुम्हे तुम्हारे सद्गुरु के कृपा से ही प्राप्त हुआ है "

हमें कोई हक नही है कि हम किसी दुसरे में दोष देखें | हमें यह नही भुलना चाहिए |
महाराज जी कहते है कि दुराग्रही , मलीन विचार वाला  व्यक्ति  अगर छद्म रुप धर कर या भेष बदल कर या भक्त बनने का स्वागं रचकर , शास्त्र रटकर कथा करता हो तो वहां से चुपचाप हट जाना चाहिए |
नहीं तो कहने वाला तो श्री हरि के नजर में दोषी है हि , सुनने वाला भी उसमें पाप का भागीदार होता है |
जो व्यक्ति अपने को दीन नही मानता वो भक्ति पथ का अधिकारी कतई नही हो सकता । गांठ बांध लिजिए , अगर हम अपने गुरु से सच्चा प्यार करते है तो हम दूसरे को अपने से उच्च समझेगें नही तो अहंकार आ जाएगा और हरिगुरु से विमुख हो जाएगें | दीनता गई तो सब कुछ समाप्त |

हम जो भी दिव्य ज्ञान पढते है | सुनते हैं  , लिखते हैं वोलते है , भगवद् बिषय की चर्चा करते है उस पर पहले खुद अमल करें | नहीं तो सारी की सारी वाते व्यर्थ है हमारे लिए | दुसरे का उद्धार तो हो जाएगा अगर सुनने वाला सीरीयस है , सीरीयसली ले रहा है तो , लेकिन कहने वाले को  , लिखने वाले को कोई फल कभी भी नही मिल सकता , उल्टे नामापराध कर बैठेगा , क्योंकि वह बिना अपनाए , लागु किए अपने जीवन में केवल सम्भाषन कर रहा हैं | हरिगुरु को धोखा दे रहा है और पाप कमा रहा है अपने लिए ,
हरिगुरु तो अंतर्यामी है , वह सब समझते है , कौन क्या कर रहा है | कितना सीरीयस है | कितना खुद समझा है ,  अमल किया है या केवल लोक रंजन कर नामापराध कमा रहा है |
नोट कर लिजिए ये लोक रंजन की बीमारी सबसे खराब बीमारी है | यह हमें साधना के पथ पर ,दिव्य प्रेम के पथ पर आगे नही बढ़ने देगा कभी |
अत: हम खुद को टटोलें की जो हम भगवद् बिषय पर बोल रहे हैं , सुन रहे है , लिख रहे है उस पर खुद कितना अमल कर रहें है समझ रहे है , लागु कर रहे है , अपना रहे है ?  कहीं ऐसा तो नही की पिंजरे मे रखे तोते के समान केवल गा रहें हैं |
अगर ऐसा है तो संभल जाइये आप नामापराध के भागीदार बन रहें हैं |
दुसरा सुनने बाला , पढ़ने बाला तो लाभ कमा रहा है और कमा लेगा अगर वह पात्र है तो , परन्तु आप का क्या होगा ?
अत: सावधान हरिगुरु के बातो पर पहले अमल करीये , किसी भी अन्य साधक या भगवद् जिज्ञासु का अपमान कभी भी नही करें | कभी भी किसी भी क्षण कोई भी उच्च साधक बन सकता है |
सब को सम्मान दें ,दोष न देखें किसी में , दोष खुद में ढुँढे , हम सभी में दोष देखने का और उस दोष को दुर करने का सामर्थ्य और अधिकार  केवल  हरिगुरु का है |

:- परम पुज्यनिय मां

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 116से आगे .....

सभी स्नेही मानसप्रेमी साधकजनों को हमारी स्नेहमयी राम राम | जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 116से आगे ..... चौपाई : सुनहु...

🌼 युगल सरकार की आरती 🌼

 आरती माधुरी                      पद संख्या २              युगल सरकार की  आरती  आरती प्रीतम , प्यारी की , कि बनवारी नथवारी की ।         दुहुँन सिर कनक - मुकुट झलकै ,                दुहुँन श्रुति कुंडल भल हलकै ,                        दुहुँन दृग प्रेम - सुधा छलकै , चसीले बैन , रसीले नैन , गँसीले सैन ,                        दुहुँन मैनन मनहारी की । दुहुँनि दृग - चितवनि पर वारी ,           दुहुँनि लट - लटकनि छवि न्यारी ,                  दुहुँनि भौं - मटकनि अति प्यारी , रसन मुखपान , हँसन मुसकान , दशन - दमकान ,                         ...

श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 113से आगे .....

सभी स्नेही मानसप्रेमी साधकजनों को हमारी स्नेहमयी राम राम | जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 113से आगे ..... चौपाई : काल क...