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- प्रेम रस सिद्धान्त - - ईश्वर प्राप्ति का उपाय -- ज्ञान एवं भक्ति -

🌿🌷 - प्रेम रस सिद्धान्त - 🌷🌿
        
🌿🌸 - ईश्वर प्राप्ति का उपाय - 🌸🌿
      🌳🌹- ज्ञान एवं भक्ति -🌹🌳
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गतांक से आगे.......

दूसरे उदहारण से यों समझिये।
यथा- यदि कोई व्यक्ति आम की डाल खा रहा हो तो लोग उसे मूर्ख कहेंगे जब कि वे बुद्धिमान् लोग आम का फल मूल्य देकर खाते हैं । यद्यपि आम का वृक्ष ही डाल, फल आदि में परिणत है, फिर भी डाल से फल के माधुर्य में विशेष वैलक्षण्य है । अब आप सोचिये कि गन्ने के वृक्ष में कितना माधुर्य है, यदि उसमें फल लगता तो कितना माधुर्य उस फल में होता ! इसी प्रकार जो माधुर्य के वैलक्षण्य का अन्तर गन्ने के फल के माधुर्य में होता, वैसा ही वैलक्षण्य निराकार-ब्रह्मानन्द से साकार-प्रेमानन्द में होगा, ऐसा अनुमान है । तभी तो वेदव्यास जी के कथनानुसार -

मुक्तानामपि सिद्धानां नारायणपरायण: ।
सुदुर्लभ: प्रशान्तात्मा कोटिष्वपि महामुने ॥   ( भा० ६-१४-५ )

अर्थात् करोड़ों मुक्त परमहंसों में किसी बड़भागी को प्रेम-रस की उपलब्धि होती है । पुन: वेदव्यासोक्ति के अनुसार -

आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे ।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थं भूतगुणो हरि: ॥   ( भा० १-७-१० )

जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान ।
जे हरि कथा न करहिं रति तिनके हिय पाषान ॥   ( रामायण )

अर्थात् परमहंसावस्था को प्राप्त कर लेने वाले आत्माराम-जन भी बरबस श्रीकृष्ण में अनुरक्त हो जाते हैं । ऐसी कुछ विलक्षणता ही है ।

एक बार नारद जी स्वर्ग से द्वारिका आ रहे थे । उस समय उन्हें देखकर द्वरिकावासियों ने ऐसा अनुमान लगाया -

चयस्त्विषामित्यवधारितं पुरा तत: शरीरीति विभाविताकृतिम् ।
विभुर्विभक्तावयवं पुमानिति क्रमादमुन्नारद इत्यबोधि स: ॥

अर्थात् प्रथम तो जनता ने ऐसा समझा कि कोई तेज:पुञ्ज आकाश से पृथ्वी पर उतर रहा है, पश्चात् और समीप आने पर ऐसा अनुभव किया कि प्रकाश में कुछ झिलमिलाती आकृति भी है । जब बिल्कुल पास आकर नारद जी खड़े हो गये तो लोगों ने पूर्णतया परिचय प्राप्त कर लिया कि अरे ! ये तो महर्षि नारद जी हैं । बस, इसी प्रकार ब्रह्म के भी तीन स्वरूप बताये गये हैं, जो एक ही ब्रह्म के अभिन्न स्वरूप हैं ।

वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् ।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥   ( भा० १-२-११ )

अर्थात् वह एक अद्वितीय ब्रह्म-तत्त्व ही ब्रह्म, परमात्मा एवं भगवान्, इन तीनों रूपों में प्रकट होता है । इसमें व्याप्त ब्रह्म अकर्त्ता है, जिसके उपासक ज्ञानी लोग हैं । ये लोग दूर से तेज: पुञ्ज के रूप में उसका अनुभव करके मुक्त हो जाते हैं । दूसरा स्वरूप प्रत्येक जीव के अन्तःकरण में बैठकर परमात्मा-स्वरूप होकर उसके अनन्तानन्त जन्मों के अनन्तानन्त कर्मों का हिसाब रखता है एवं फल प्रदान करता है तथा वर्तमान प्रत्येक क्षण के प्रत्येक कर्म को नोट भी करता है । यह योगियों का उपास्य परमात्मा है । यह ज्ञानियों के ब्रह्म को और समीप अनुभव करता है । तीसरा स्वरूप कृपामय होकर सगुण-साकार रूप से प्रत्यक्ष अवतीर्ण होता है, जिसमें उस ब्रह्म का अनुभव इन्द्रियों से भी होता है । यह सबसे निकट वाला भगवान् का स्वरूप है । इसके उपासक भक्त कहलाते हैं ।

इसी से गीतोक्ति के अनुसार -

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक: ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥    ( गी० ६-४६ )

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मत: ॥   ( गी० ६-४७ )

अर्थात् तपस्वी कर्मकांडी एवं ज्ञानी से भी श्रेष्ठ योगी है एवं योगियों में सर्वश्रेष्ठ वह है, जो भक्त है । ये तीनों ही एक उसी तत्व को प्राप्त करते हैं, तीनों ही मुक्त हैं, तीनों ही अनन्त दिव्यानन्द अनन्तकाल के लिए प्राप्त करके कृतार्थ हो जाते हैं, फिर भी उस परमतत्व को अधिक एवं अधिकाधिक निकट से अनुभव करने के भेद से ही ज्ञानी, योगी एवं भक्त कहलाते हैं ।

आपने आम का फल देखा होगा । यदि केवल देखने मात्र को आम का फल मिले तो समझिए यह ज्ञानियों का आनन्द है । यदि देखने एवं सूँघने को भी मिले तो समझिए योगियों का आनन्द है । यदि देखने, सूँघने एवं चूसने को भी मिले तो यह भक्तों का प्रेमानन्द है ।

वस्तुत: निराकार ब्रह्मानन्द एवं साकार प्रेमानन्द दो वस्तु नहीं हैं । आप तो यों समझिये । जैसे एक गर्भिणी माँ अपने पेट में अदृष्ट-पुत्र को महसूस करती हुई आनन्द-विभोर रहती है एवं अपने को पुत्रवती भी मानती है । जिस माँ को पचास वर्ष की आयु तक बन्ध्या रहना पड़ा हो एवं उस कारण वह दुःखी भी हो, आज गर्भाधान होने पर उसे कितना आनन्द मिल रहा है, यह माँ ही समझ सकती है । प्रतिमास आनन्द की वृद्धि भी होती जाती है जब कि पुत्र का अभी रूप, नाम, लीला व गुण, कुछ भी प्राप्त नहीं किया है । जब वही पुत्र उत्पन्न हो जाता है, तब गर्भस्थ-पुत्र के सुख को नगण्य समझती है । गर्भस्थ-पुत्र को दूसरा नहीं समझती अपितु उस आनन्द की अपेक्षा इस रूप, गुण, लीला, नाम-युक्त पुत्र के आनन्द में विशेष वैलक्षण्य का अनुभव करती है । पुन: यदि उस माँ से कोई कहे कि जब गर्भस्थ-शिशु एवं बाहर का दृष्ट-शिशु एक ही है तो उसे पुन: गर्भ में कर दिया जाय, तो विश्व की कोई भी माँ ऐसा करना न स्वीकार करेगी क्योंकि अब तो इन्द्रियों से भी पुत्र का आनन्द प्राप्त कर रही है तब तो केवल अन्त:करण से ही आनन्दानुभव करती थी । यह विशेष वैलक्षण्य है । ऐसा ही विशेष वैलक्षण्य निराकार ब्रह्मानन्द से साकार प्रेमानन्द में होगा, ऐसा अनुमान है ।
✨✨✨✨✨✨✨✨✨
---- भक्तियोगरसावतार जगद्गुरू श्री कृृपालु महाराज जी के प्रवचन श्रृंखला पर आधारित 'प्रेमरस सिद्धान्त' ग्रन्थ से ।
क्रमशः 1⃣3⃣
(प्रस्तुति आभार : गायत्री जी, गोलोक ग्रुप-138)
🌷"श्री राधे"🌷
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