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संत कैसो कृपा करैं

महाभारत का युद्ध आरंभ होने से पूर्व कौरवों की ओर से दुर्योधन और पांडवों की ओर से अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से सहायता माँगने गये। दोनों ही ह्रदय में जानते हैं कि केशव जिस ओर, विजय वहीं। किन्तु हाय रे स्वभाव ! लक्ष्य के पास जाकर भी भटका देता है।
भगवान सो रहे हैं, दोनों ही पारिवारिक संबध के कारण अंत:पुर में भगवान के शयन-कक्ष में चले गये वैसे भी भगवान के यहाँ तो कोई रोक-टोक होती भी नहीं; आने वाला उन्हें अपना मान ले और चला आवे !
अर्जुन में शिष्य और सखा-भाव है सो शैय्या पर बैठ गया श्रीचरणों के पास और दुर्योधन में राजस-भाव मुख्य है सो बैठा श्रीहरि के मस्तक के पास; और कह सकते हैं कि यहीं निश्चित हो गया महाभारत का परिणाम !
कुछ पाने की इच्छा है तो बैठो श्रीचरणों में। ऐसे बैठो ताकि दाता की, गुरु की दृष्टी सदैव तुम पर बनी रहे। दास का ऐसा व्यक्तिगत मत है कि संत/गुरु जहाँ बैठे हों, उनकी पंक्ति में न बैठकर उनके सम्मुख बैठें; जब तक संत/गुरु ही बाँह पकड़कर नेह से भरे अपने निकट न बैठावें। जब हम प्रभु-कृपा से अनायास ही दुर्लभ पा लेते हैं तो उसका महत्व बहुधा समझ नहीं आता। आवे भी कैसे? चित्त की शुद्धि हुयी नहीं, क्या मिला, यह ज्ञान ही नहीं है, अनायास मिला तो स्वयं के पात्र होने, विशिष्ट होने का अहंकार चित्त में जाग्रत हो उठा। भूमि की निराई-गुड़ाई हुयी नहीं, ऊसर भूमि में भले ही कल्पवृक्ष का बीज ही क्यों न डाल दो, कैसे फ़ले।
संत के सम्मुख रहेंगे, बैठेंगे तो हमारी दृष्टी केवल उनके श्रीचरणों और दीप्त मुख-मंडल पर ही होगी और उनकी करुणामयी दृष्टी हमारी ओर। अब मन को भागने का, कुछ कल्पना करने का, एकाग्रता-भंग होने का अवसर न मिलेगा। संत सम्मुख हों तो किस विकार का साहस कि अपना प्रभाव दिखा सके? दास ने अनुभव किया है कि बहुधा संतों के परिकरों से अधिक वे पा लेते हैं जो उनके श्रीचरणों में बैठते हैं। कुछ पाना है तो झुकना सीखना होगा। दीनदयाल शीघ्र कृपा करेंगे तो किस पर? दीन पर ही !
भिक्षुक छोटा होता है और दाता बड़ा। श्रीहरि माँगने गये महाराज बलि से; अखिल ब्रहमान्ड-नायक, विराट को बाबन अँगुल की देह धारण करनी पड़ी !
संत के सम्मुख रहें और पावें अति दुर्लभ ! चेष्टा हो कि यही जन्म सार्थक हो जावे।
उनकी कृपा तो उनकी कृपा है, उनकी कृपा की बात न पूछो.........!
श्रीकुन्जबिहारी ! श्रीहरिदास !
जय जय श्री राधे !

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