प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।
जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोइ॥
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19वीं शताब्दी की घटना है।
पन्ना राज्य (अब मध्यप्रदेश में) के बरायछ गाँव में जन्मे थे हिम्मतदास जी। बचपन से ही इन्हें साधु-संतों से प्रेम था।
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भगवान् श्रीकृष्ण की मंगलमयी कथा श्रवण करने और उनके मधुर नाम का संकीर्तन करने से उनके हृदय में श्यामसुंदर भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों में विशुद्ध प्रीति हो गई।
भगवत्कृपा से इन्हें पतिपरायणा पत्नी मिली, जिनसे इनके दयाराम नामक पुत्र हुए, जो आगे चलकर श्रीमद्भागवत के रसिक बने।
हिम्मतदास जी जब झाँझ बजाते हुए हरि संकीर्तन करते,
तो वे बाह्य जगत को भूलकर श्रीराधाकृष्ण के प्रेम में डूबकर भाव-विह्वल हो जाते।
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इनका प्रतिदिन का एक नियम था।
ये अपने गाँव से प्रतिदिन पैदल झाँझ बजाते हुए कीर्तन करते हुए पन्ना के राजमंदिर 'युगलकिशोर मंदिर' में जाते।
वहाँ अपने इष्टदेव भगवान् श्रीराधाकृष्ण की चित्ताकर्षक सुंदर झाँकी के दर्शन करते,
उनके मधुर लावण्यमय रूप को टकटकी लगाकर निहारते और अपने प्रेमाश्रुओं की सुंदर माला उनके चरणारविन्दों में समर्पित करते।
फिर झाँझ बजाते हुए कीर्तन करते हुए अपने घर लौट आते।
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चाहे आँधी हो या तूफान, गर्म लू के थपेड़े हों, या दाँत कटकटाने वाली ठंड, या हो रही हो घनघोर मूसलाधार वर्षा, युगल किशोर मंदिर में स्थित अपने आराध्य श्रीराधाकृष्ण जी के दिव्य दर्शन करने का हिम्मतदास जी का यह नियम अनवरत चलता रहा।
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एक बार हिम्मतदास जी झाँझ बजाते हुए राधाकृष्ण के मधुर पावन नाम का संकीर्तन करते हुए भगवद्दर्शन करने पन्ना जा रहे थे।
अचानक जंगल के रास्ते में इन्हें कुछ चोर मिल गए।
उन चोरों ने इनकी तलाशी ली तो इनके पास कुछ भी न मिला।
आखिर में वे चोर झक मारकर इनकी झाँझ लेकर ही चलते बने।
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झाँझ छिन जाने से हिम्मतदास जी अत्यंत दुःखी हुए क्योंकि इन्हीं को बजाकर कीर्तन करते हुए वे अपने प्रिया-प्रियतम को रिझाते थे।
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वृषभानुकिशोरी श्रीराधाजी और नंदनंदन श्रीकृष्ण के कान तो प्रतिदिन अपने भक्त के मधुर कीर्तन को सुनने के लिए तरसते रहते थे।
युगल किशोर मंदिर में खड़े उन नटवर नागर और कृष्णप्रिया की आँखें प्रतिदिन अपने भक्त के दर्शनों के लिए तड़पती रहती थीं।
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जब उन श्रीयुगलसरकार ने झाँझ छिन जाने से दुःखी अपने भक्त की पीड़ा देखी तो उनकी आँखें भर आईं।
उन्होंने तुरंत एक अद्भुत लीला की।
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जैसे ही चोर झाँझ लेकर आगे चले, वे अंधे हो गए।
उन्हें दिखना ही बंद हो गया।
अब तो चोर जोर-जोर से चिल्लाने लगे,
"अरे ओ बाबाजी!
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"अरे ओ बाबाजी!
हम पर दया करो। हमें कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा।
अपनी झाँझ वापिस ले लो और हमारी आँखें ठीक कर दो।"
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चोरों का शब्द सुनकर हिम्मतदासजी दौड़े हुए आए।
उनके पैरों का शब्द सुनकर चोर झाँझ पृथ्वी पर डालकर इनके पैरों में गिर पड़े।
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उन चोरों को गिड़गिड़ाते देख हिम्मतदासजी का संत हृदय द्रवित हो उठा।
उन्होंने अपने इष्टदेव श्रीराधाकृष्णजी का स्मरण कर उन चोरों की आँखों पर हाथ फेरा और ज्यों ही उन्होंने ऐसा किया,
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वे भी भौंचक्के रह गए। ऐसा करते ही चोरों की नेत्र दृष्टि पुनः वापिस आ गई। हिम्मतदासजी अपने प्रभु की यह अनुपम कृपा देखकर भावविभोर हो उठे।
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उन्होंने चोरों को चोरी छोड़कर संसार के नश्वर धन को लूटने के बजाय भगवान् के मधुर नाम का बहुमूल्य खजाना इकट्ठा करने का उपदेश दिया।
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सच्चे साधु के क्षणभर के सत्संग से चोरों की भी बुद्धि पलट गई और उन्होंने भी अपना जीवन श्रीराधाकृष्णजी के भजन में लगाने का संकल्प ले लिया।
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चोरों के रास्ते में मिल जाने के कारण हिम्मतदासजी को पन्ना पहुँचते-पहुँचते रात हो गई।
जब वे वहाँ पहुँचे तो युगलकिशोरजी की संध्या-आरती, ब्यारु होकर उनका शयन हो चुका था।
इन्हें देखकर वहाँ का पहरेदार बोला,
"अब तो भगवान् के पट बंद हो चुके हैं, अतः अब उनका दर्शन नहीं हो सकेगा।"
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हिम्मतदासजी भगवान् के रूप का दर्शन न होने पर व्याकुल हो गए- "क्या उनके प्रिय-प्रियतम आज उनसे रूठ गए,
जो कि अपनी बाँकी-झाँकी के उन्हें दर्शन नहीं दिए।"
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हिम्मतदासजी ने रुदन करते हुए उसी समय यह दोहा पढ़ा-
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कपटिन कों लागे रहैं, हिम्मतदास कपाट।
प्रेमिन के पग धरत हीं, खुलैं कपाट झपाट॥
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हिम्मतदासजी द्वारा यह दोहा पढ़ते ही मंदिर के पट स्वयं खुल गए।
हिम्मतदासजी भगवान् के प्रेम में विह्वल होकर उनकी स्तुति करने लगे।
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पहरेदार यह अलौकिक दृश्य देखकर चकित रह गया और मंदिर के महंत गोविंददीक्षितजी के पास दौड़ा गया।
इधर हिम्मतदासजी को स्तुति करते-करते प्रातःकाल हो जाने से मंगला आरती का समय हो गया।
तभी महंतजी दौड़े हुए आए और उन्होंने हिम्मतदासजीके चरणों में प्रणाम किया।
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प्रातःकाल पन्ना के महाराज भी भगवान् के दर्शन करने आए और उन्होंने भी पट खोलने की बात सुनी।
महाराज ने इन्हें एक गाँव देते हुए उसमें रहने को कहा,
जिससे उन्हें बरायछ गाँव से प्रतिदिन आने-जाने में कष्ट न हो।
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किंतु हिम्मतदासजी ने नम्रतापूर्वक महाराज का यह अनुरोध अस्वीकार कर दिया और आरती होने पर अपने गाँव लौट आए।
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हिम्मतदासजी संतों की सेवा करते थे और इसलिए उनके गाँव से होकर जाने वाले संत उन्हीं के यहाँ ठहरते थे।
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किंतु धन का अभाव होने के कारण इन्हें परमेश्वरी नामक एक वैश्य से अनेक बार भोजन का सामान उधार लेना पड़ता था।
एक बार साधु-संतों की एक टोली हिम्मतदासजी के घर आ गई।
इन्होंने सभी को सम्मानपूर्वक अपने घर ठहराया और सामान उधार लेने वैश्य के यहाँ जा पहुँचे।
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किंतु उसने पहले का उधार चुकाए बिना और सामान उधार देने से मना कर दिया।
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हिम्मतदासजी को जब उनकी पत्नी ने उदास लौटे हुए देखा, तो उसने पति से इसका कारण पूछा।
हिम्मतदासजी ने वैश्य द्वारा उधार न देने की बात बताई।
हिम्मतदासजी की उस बेचारी साध्वी पत्नी के पहले ही सारे आभूषण संतों की सेवा में बिक चुके थे,
केवल उसकी नाक की नाथ बची थी।
उसी को नाक में से निकालकर पति के हाथों में देते हुए वह बोली,
"नाथ! इसे देकर आप संतों के भोजन के लिए सामान ले आइए!"
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पत्नी को अपना एकमात्र आभूषण देते देख हिम्मतदासजी की आँखें छलछला आईं, उन्हें अत्यंत संकोच हुआ।
किंतु इसे लेने के अतिरिक्त और कोई उपाय भी न था।
वे उसी नथ को गिरवी रखकर भोजन का सामान ले आए।
पत्नी तुरंत प्रसन्नचित्त होकर संतों के लिए भोजन बनाने लगी।
हिम्मतदासजी ने संतों को भोजन कराया। संत हिम्मतदासजी की सेवा से अत्यंत प्रसन्न हुए और प्रातःकाल चले गए।
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संतों के चले जाने पर हिम्मतदासजी नदी के तट पर स्नान करने गए।
उधर हिम्मतदासजी और उनकी पत्नी की इस संत सेवा पर भगवान् श्रीराधाकृष्णजी रीझ गए।
भगवान् श्रीकृष्ण उसी समय हिम्मतदासजी का रूप धरकर उस वैश्य के यहाँ पहुँचे और उससे बोले,
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"भैया! तुम मेरे उधार सामान का सारा धन ले लो और नथ लौटा दो।
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" वैश्य ने हिसाब करके 275 रूपए माँगे। भगवान् श्रीकृष्ण ने वे रूपए देकर हिसाब चुकता कर दिया और नथ लेकर हिम्मतदासजी के घर पहुँच गए।
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हिम्मतदासजी की पत्नी गौ के गोबर से अपने नन्हे से टूटे घर में श्रीकृष्ण भगवान् के नन्हे से मंदिर का चौका लीप रही थी।
हिम्मतदासजी के वेष में पधारे भगवान् श्रीकृष्ण ने उसकी पत्नी को आवाज लगाकर पुकारा और बोले,
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"लो! यह नथ ले जाओ और पहन लो।"
पत्नी चौंकती हुई बोली, "अभी-अभी तो आप लोटा-धोती लेकर नदी में स्नान करने गए थे, इतनी देर में नथ कहाँ से ले आए?
आप इसे चबूतरे पर रख दीजिए, मैं अभी ठाकुरजी का चौका लीप रही हूँ।"
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भगवान् बोले, "सोने का आभूषण पृथ्वी पर नहीं रखा जाता। जल्दी से आकर पहन लो!"
हिम्मतदासजी की पत्नी समीप आई और बोली, "मेरे दोनों हाथ तो गोबर से सने हुए हैं। तुम्हीं पहना दो।"
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भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने हाथों से ही उसे नथ पहना दी और फिर तुरंत घर से बाहर चले गए।
कुछ देर बाद हिम्मतदासजी स्नान करके लौटे और पत्नी की नाक में नथ देखी तो आश्चर्यचकित रह गए और पूछने लगे, "तुम्हें यह नथ कहाँ से मिल गई?"
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पत्नी बोली, "महाराज! बुढ़ापे में यह हँसी अच्छी नहीं लगती।
अभी-अभी तो आप मेरी नाक में अपने हाथों से यह नथ पहनाकर गए हैं।
मैंने तो अभी गोबर के हाथ भी नहीं धोए हैं।"
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हिम्मतदासजी तो कुछ समझ ही न सके।
दौड़े-दौड़े उसी वैश्य के पास गए और उससे पूछने लगे,
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"भैया! मेरी नथ तुमने किसको बेची थी?" अब वैश्य मुस्कुराते हुए उनसे बोला, "भगतजी! कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं?
अभी-अभी तो आप 275 रुपए देकर अपना सारा हिसाब चुकता कर अपनी नथ ले गए हैं।
यह बही रखी है, ये इसमें हिसाब चुकता होने के आपके हस्ताक्षर हैं।" हिम्मतदासजी तो बही में अपने हस्ताक्षर देखकर भौंचक्के रह गए।
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वे तुरंत समझ गए कि यह मेरे करुणानिधान भगवान् श्रीराधाकृष्ण की ही लीला है। प्रभु की इस कृपा को देखकर उनकी आँखों से श्रीराधाकृष्ण प्रेम के आँसू बहने लगे।
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वे रोते हुए उस वैश्य से बोले, "परमेश्वरी भैया! तुम्हीं परमेश्वर के सच्चे दास हो। आज तुम्हारा नाम सार्थक हो गया,
जो तुम्हें भगवान् के दर्शन हुए। पता नहीं मेरे किस अपराध के कारण भगवान् ने मुझे दर्शन नहीं दिए।"
घर लौटकर जब पत्नी के सामने सारा रहस्य कह सुनाया तो सुनकर वह भी चकित रह गई।
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दोनों भगवान श्रीराधाकृष्ण जी के प्रेम में आँसू बहाने लगे।
स्वयं को भगवान् के दर्शन न होने के दुःख में हिम्मतदासजी ने खाना-पीना छोड़ दिया।
रात को इन्हें एक दिव्य वाणी सुनाई दी,
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"तुम्हें श्रीवृंदावनधाम में अपने इष्ट श्रीराधाकृष्णजी के दर्शन होंगे।"
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इतना सुनते ही हिम्मतदासजी आनंद से झूम उठे।
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वे तुरंत अपनी झाँझ लेकर, उस पर वृजराजकिशोर और कीर्तिकुमारी के नामों का संकीर्तन करते हुए उनकी विहारस्थली श्रीवृंदावन की ओर चल पड़े।
कीर्तन की धुन में मग्न होकर हिम्मतदासजी अपने शरीर की सुध-बुध भी भूल गए।
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अपने प्रिय से मिलन की कल्पना कर-कर उनकी आँखों से प्रेम के आँसू की धारा बहने लगी। भूख-प्यास को भी बिसराकर अपने प्रभु के प्रेम में मस्त वे दिन-रात चलते रहते।
अपने ऐसे प्यारे भक्त को अपने श्रीधाम में आते देख किशोरीजी ने नंदकिशोर जी की ओर साभिप्राय दृष्टि से देखा।
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वे अंतर्यामी नंदनंदन श्रीकृष्ण अपनी अर्धांगिनी के मन के भाव को तुरंत समझ गए और वे तुरंत अपने भक्त का स्वागत करने श्रीवृंदावन से चल पड़े।
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अभी हिम्मतदासजी वृंदावन के मार्ग में ही थे कि भगवान् श्रीकृष्ण उनसे मिलने जा पहुँचे और उनके समक्ष प्रकट हो गए।
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उनकी भुवनमोहिनी रूप की अनुपम झाँकी, साँवला सलोना मुखड़ा, तोते जैसी नासिका, उस पर झूलता हुआ श्वेत मोती, उसके नीचे मुस्कराते हुए उनके बिम्बाफल सदृश गुलाबी होंठ, बड़ी-बड़ी कजरारी आँखें और उनसे छूट रही प्रेम की फौहारें, माथे पर गोरोचन का सुंदर तिलक, शीश पर सुशोभित मोरमुकुट, वक्षःस्थल पर झूलती रंग-बिरंगे पुष्पों की वनमाला, हाथों में वंशी और कंधे पर उड़ता पीतांबर, हिम्मतदासजी तो उन सौंदर्यसागर को एकटक देखते ही रह गए।
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............आह! क्या इतने सुंदर हैं मेरे स्वामी!
वे कन्हैया कहीं चले न जाएँ, ऐसा सोचकर हिम्मतदासजी तुरंत उनके चरणकमलों से लिपट गए और उस पर आँसुओं के मोती वारने लगे।
भगवान् ने तुरंत अपने दोनों हाथ बढ़ाकर अपने प्रिय भक्त को उठाया और गले से लगा लिया।
हिम्मतदासजी के शरीर का एक-एक रोम भगवान् के दिव्य प्रेम से रोमांचित हो उठा।
तब भगवान् श्रीकृष्ण हिम्मतदासजी के कानों में अमृत उड़ेलते हुए से मधुर स्वर में बोले, "भक्तवर! तुम सात दिन से भूखे-प्यासे हो।
आओ! इस कदंब की छांह तले भोजन करें।"
हिम्मतदासजी अपने आराध्य की आज्ञा भला कैसे टालते।
उन्होंने अपने प्रभु का महाप्रसाद ग्रहण किया। पुनः मिलने का वचन देकर प्रभु अंतर्धान हो गए। -
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हिम्मतदासजी ने जैसे ही श्रीवृंदावनधाम की दिव्य भूमि पर कदम रखा, उनकी विचित्र दशा हो गई।
उन्हें वृंदावन की डाल-डाल में पात-पात में सर्वत्र अपने राधाकृष्ण की मुस्कराती हुई छवि दिखाई देने लगी।
वे अपने प्रभु से मिलने के लिए इधर-उधर दौड़ने लगे।
श्रीराधाकृष्णजी के प्रेम से स्निग्ध श्रीवृंदावन की पावन रज में वे लोटपोट हो गए।
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अगले दिन जब वे कल-कल बहती यमुना महारानी के तट पर पहुँचे तो वे ठगे से रह गए।
उन्होंने देखा कि यमुना के तट पर कदंब का एक सुंदर सघन वृक्ष है।
उस पर एक अत्यंत रमणीय रत्नजटित झूला पड़ा हुआ है।
उस सुंदर झूले पर उनके प्राणों के सर्वस्व यशोदानंदन श्रीकृष्ण रासेश्वरी श्रीराधा के संग विराजमान हो उसी की ओर देख-देखकर अपनी मधुर मुस्कान की झड़ी लगाई जा रहे हैं।
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हिम्मतदासजी तुरंत प्रेम में अपने शरीर की सुध-बोध खोकर उनकी ओर दौड़ पड़े और उस झूले के समीप जा पहुँचे।
वे उस झूले को झुलाकर अपने प्रिय-प्रियतम को रिझाने लगे।
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श्रीवृंदावन से हिम्मतदासजी गोकुल पहुँचे,
तो श्यामसुंदर ने पुनः अपने बालरूप के दर्शन कराए।
यशोदा मैया, नंद बाबा, दाऊ भैया, सखामंडली और गोपियों के संग उनकी मधुरातिमधुर दिव्य बाललीलाओं के दर्शन कर हिम्मतदासजी कृतकृत्य हो गए।
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अपने इष्टदेव के आदेश से हिम्मतदासजी व्रज के सभी तीर्थों की यात्रा करके घर लौट आए और पत्नी सहित श्रीवृंदावनविहारी श्रीराधाकृष्णजी के नाम जप और लीला चिंतन में तल्लीन हो गए।
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हे नाथ ! नारायण ! वासुदेवा !
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राधे राधे ।