🌿🌷 - प्रेम रस सिद्धान्त - 🌷🌿
🌿🌸 - ईश्वर प्राप्ति का उपाय - 🌸🌿
🌳🌹- ज्ञान एवं भक्ति -🌹🌳
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गतांक से आगे.......
जरा आप लोग सोचिये कि यदि अंधेरे में रस्सी पड़ी हो तो किसी व्यक्ति को उसमें सर्प-बुद्धि से भय हो सकता है, किन्तु यह नहीं हो सकता कि कोई व्यक्ति अपने आपको सर्प मानने लगे । फिर ब्रह्म का ज्ञान सदा एकरस अखंड रहता है, उसमें अज्ञान कैसे आ सकता है ?
अतएव यही सिद्धान्त सर्वमान्य है कि जीव के ऊपर यह अज्ञान अनादिकाल से है, किन्तु अनन्तकाल तक नहीं रहेगा, एक दिन उपासनादि करने से समाप्त हो सकता है । हाँ, यह अवश्य विचारणीय है कि माया-शक्ति का अत्यन्ताभाव कोई नहीं कर सकता ।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत: । (गी० २-१६ )
अर्थात् किसी सत्ता का या शक्ति का अभाव नहीं हो सकता । चूंकि माया एक ईश्वरीय शक्ति है अतएव उसके नाश की कल्पना करना पागलपन है । यदि ऐसा होना होता तो अनादिकाल से अनन्तानन्त बार भगवान् के अवतार एवं महापुरुषों के प्राकट्य हुए, कोई भी उस माया को समाप्त कर देता और सब मुक्त हो गये होते । वास्तव में आप माया से मुक्ति अर्थात् छुटकारा पा सकते हैं और सदा के लिए मुक्त हो सकते हैं किन्तु यह सर्वथा असम्भव है कि आप माया-शक्ति को ही समाप्त करने की योजना बनायें ।
एक बात और भी विचारणीय है, वह यह कि ब्रह्म सूत्र में लिखा है - 'जगद्व्यापारवर्जम्' ।
अर्थात् कोई जीव यदि ब्रह्म-ज्ञानी हो भी जाता है तो वह संसार का निर्माण या पालनादि नहीं कर सकता । पुन: ब्रह्मसूत्र के अनुसार-
'भोगमात्रसाम्यलिंगाच्च'
अर्थात् ब्रह्मानन्द भोगने मात्र में जीव, ब्रह्म की समता मानी गयी है । इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि जितने आत्मज्ञानी परमहंस हुए हैं, वे सब उस ज्योति-स्वरूप ब्रह्म में 'अपने' स्वरूप से प्राप्त हुए हैं, ज्योति-स्वरूप नहीं हो गये, यथा -
एवं संप्रसादोऽस्माच्छरीरात्समुत्थाय
परं ज्योतीरूपं संपद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते ।
अतएव -
ब्रह्मविदाप्नोति परम्
अर्थात् ब्रह्म को जानने वाला परब्रह्म को प्राप्त होता है । जब वह ब्रह्म ही है तो किसी पर तो प्राप्त होने की क्या आवश्यकता है ।
इसके अतिरिक्त जितने भी ज्ञानी हमारे इतिहास में हुए हैं, ये सब सर्वव्यापक नहीं हो गये । उन्होंने परब्रह्म का ध्यान किया एवं परब्रह्म में जाकर मिले हैं ।
कुछ लोग कहते हैं -
यथा नद्य: स्यन्दमाना: समुद्रेऽस्तं गछन्ति नामरूपे विहाय ।
तथा विद्वान् नामरूपाद्विमुक्त: परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥ ( मु० ३-२-८ )
अर्थात् जैसे नदी अपने नाम-रूप को समुद्र में खो देती है वैसे ही जीव भी ब्रह्म को प्राप्त होने पर अपने नाम-रूप को खो देता है । साथ ही लौकिक तर्क देते हैं कि नदी का पानी भी समुद्र से एक होकर खारा हो जाता है । बस, यही एक उदाहरण लेकर वे समस्त वैदिक ऋचाओं के विरुद्ध बोलने को प्रस्तुत हो जाते हैं । जरा वे लोग सोचें तो कि यदि समुद्र में नमकीन जल ही है तो फिर बादल मीठा जल कैसे बरसाते हैं ? अतएव यह कहना अयुक्तियुक्त है कि कोई सत्ता अपनी सत्ता ही खो देगी । यदि नदी का नाम की सत्ता ही समुद्र है तो समुद्र में मिलने की क्या आवश्यकता है, वह स्वयं समुद्र बन जाय ? अर्थात् ब्रह्म को जानने पर वह ब्रह्मज्ञानी सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक क्यों नहीं बन जाता ? उसे परब्रह्म से मिलने की क्या आवश्यकता है ?
'पुरुषमुपैति' फिर क्यों कहा है ?
भावार्थ यह है कि अद्वैत-सिद्धि का अभिप्राय तात्कालिक वातावरण था । जब शंकराचार्य श्रीकृष्ण की भक्ति कर रहे हैं, तब यह प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता । और अगर अब भी शंका रह गयी हो तो गंभीरतापूर्वक सुनिये, मैं उन समस्त मायातीत जीवन्मुक्त अमलात्मा परमहंसों का उदहारण समक्ष रखता हूँ, जिन्होंने प्रथम ब्रह्मज्ञान द्वारा ब्रह्म का स्थान प्राप्त किया, पश्चात् सगुण साकार ब्रह्म की द्वैत-प्रेम-रस-माधुरी में बरबस विभोर हुए । मैं यह नहीं कहूँगा कि उनसे किसी ने ऐसा करने को कहा या उन्होंने कुछ प्रयत्न किया अपितु यह सिद्ध करूँगा कि वे हठात् विभोर हो गये । और वे क्यों विभोर हो गये, यह भी स्पष्ट किया जायगा ।
ब्रह्मानन्द एवं प्रेमानन्द
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यह कहना सर्वथा असंगत है कि ज्ञानयोगियों के अन्तःकरण की उपाधि पर निर्विकल्प-समाधि का ब्रह्मानन्द छोटा या सीमित या मायिक है एवं भक्ति-मार्गियों के सगुण-साकार ब्रह्म का प्रेमानन्द बड़ा या अमायिक या दिव्य है । वस्तुत: ब्रह्म एक है एवं सदा अपौरुषेय, अपरिमेय, दिव्य परमानन्द वाला है । उसके किसी भी स्वरूप को प्राप्त करने वाला सदा दिव्यानन्दमय हो जाता है । फिर भी निराकार-ब्रह्मानन्द से साकार-प्रेमानन्द में कुछ विशेष वैलक्षण्य है, अन्यथा वे परमहंस लोग प्रेमानन्द में बरबस क्यों विभोर हो जाते ? मेरी राय में तो वह विशेष-वैलक्षण्य लौकिक उदाहरणों से इस प्रकार समझा जा सकता है यथा-किसी व्यक्ति को यदि कोई व्यक्ति गुलाब की डाल सूँघते देख लेता है तो मुँह बिचका कर कहता है, वह मूर्ख है जो गुलाब के फूल को न सूँघकर उसकी डाल सूँघता है । विचार करने पर यह प्रतीत होता है कि यद्यपि गुलाब का वृक्ष ही डाल, फूल आदि के रूप में खड़ा है, तथापि गुलाब के पेड़ से गुलाब के फूल में विशेष वैलक्षण्य स्पष्ट अनुभव में आता है । अब आप यह अनुमान लगाइये कि चन्दन के वृक्ष की डाल में इतनी खुशबू है, यदि उसमें फूल होते तो उस फूल की खुशबू में कितनी विशेषता होती ! इस प्रकार जो विशेष वैलक्षण्य का अन्तर चन्दन के वृक्ष एवं उसके फूल की खुशबू में हो सकता है, वैसा ही वैलक्षण्य निराकार-ब्रह्मानन्द एवं साकार-प्रेमानन्द में होगा ।
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---- भक्तियोगरसावतार जगद्गुरू श्री कृृपालु महाराज जी के प्रवचन श्रृंखला पर आधारित 'प्रेमरस सिद्धान्त' ग्रन्थ से ।
क्रमशः 1⃣2⃣
(प्रस्तुति आभार : गायत्री जी, गोलोक ग्रुप-136)
🌷"श्री राधे"🌷
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राधे राधे ।