((((( ठाकुर श्रीनाथजी की कृपा )))))
.
श्री गोवर्धन नाथ श्रीनाथजी के एक भक्त हुए जिनका नाम श्री त्रिपुरदास जी था।
.
इन्होंने ऐसी प्रतिज्ञा की थी कि मैं प्रतिवर्ष शीतकाल में ठाकुर श्री गिरिराज श्रीनाथजी के लिए दगला (अंगरखा) भेजा करूँगा ।
.
तदनुसार ये अत्यंत ही बहुमूल्य वस्त्र का अंगरखा सिलवाते थे, फिर उसमे सुनहले गोटे लगवाते थे और बड़े प्रेमसे भेजते थे।
.
यही कारण है की इनका भेजा हुआ अंगरखा ठाकुर श्रीनाथ जी को अत्यंत प्रिय लगता था और मंदिर के गोसाईं श्री विट्ठलनाथ जी भी उसे बड़े प्रेम से श्री ठाकुरजी को धारण करवाते थे।
.
कुछ कालोपरांत इनका ऐसा समय आया कि राजा ने इनका सर्वस्व अपहरण कर लिया।
.
ये एक-एक आने को और एक-एक दाने को मोहताज हो गए।
.
इसी बीच शरद् ऋतु आ गयी ।
.
तब इन्हें श्री ठाकुरजी के लिए अंगरखा भेजने की याद आयी,
.
परंतु धन का सर्वथा आभाव होने से श्रीठाकुर जी की सेवा से वंचित होने तथा प्रतिज्ञा-भंग होने के दुख से इनकी आँखो मे आँसु छल छला आये।
.
एकाएक पीतल की एक दवात इनकी नजर मे आयी।
.
इन्होंने मन में निश्चय किया कि इसको बेचकर श्री ठाकुरजी की सेवा करूँगा ।
.
श्री त्रिपुरदास जी ने पीतल की दवात को बाजार मे बेचा, उससे उन्हें एक रूपया मिला।
.
उस रूपये से इन्होंने केवल मोटे कपडे का एक थान ख़रीदा।
.
फिर उस कपडे को लाल रंग में रंगा।
.
परंतु फिर भी इनका साहस नही हुआ कि ऐसे साधारण वस्त्र को लेकर हम कैसे श्री गोसाईंजी के पास जाये, अतः उसे घर मे ही रख लिया।
.
सोचा था कि श्री गिरिराज जी की ओर से कोई आयेगा तो उसके द्वारा भिजवा दूँगा।
.
इसी बीच श्री गोसाईंजी का कोई सेवक अपने गांव आया हुआ
.
सहज ही दिख गया। फिर तो उन्होंने वह वस्त्र उस सेवक को देकर कहा -
.
आप इसे भंडारी जी को दे देना।
.
यद्यपि यह वस्त्र श्री गोसाईंजी के किसी दास-दासी के भी पहनने योग्य नहीं है तो भी मुझ दीन की यह तुच्छ भेंट आप ले जाइये,
.
परंतु एक बात का ध्यान रखियेगा , मेरी आपसे यह प्रार्थना है कि इस वस्त्र का समाचार श्री गोसाईं जी को मत सुनाईयेगा।
.
उस सेवक ने श्री त्रिपुरदास जी के वस्त्र को लाकर भण्डारी के हाथ मे दे दिया
.
और उस भण्डारी ने उस वस्त्र को बिछाकर उसके ऊपर श्री ठाकुरजी के शृंगार के और बढ़िया वस्त्र रख दिये।
.
परंतु परम-सनेही ठाकुर श्रीनाथजी से भक्त के इस प्रेमोपहार की उपेक्षा सही नहीं गयी,
.
वे व्याकुल होकर बोले-मुझे बड़े जोर से ठण्डक लग रही है, शीघ्र इसको दूर करने का कोई उपाय करो।
.
तब श्री गोसाईंजी ने बहुत से सुंदर सुंदर वस्त्र श्रीअंग पर ओढ़ाये।
.
परंतु ठण्ड नहीं गयी। तब श्री गोसाई जी ने अँगीठी जलायी।
.
फिर भी ठण्ड दूर नहीं हुई।
.
तब श्री गोसाईंजी के ध्यान में आया कि किसी भक्त पर अनुग्रह करने के लिए प्रभु यह लीला कर रहे है,
.
अतः तुरंत ही सेवक को बुलवाकर पूछा कि इस वर्ष किस-किस की पोशाकें आई है ?
.
किताब बही खोल कर सेवक ने सबका नाम सुनाया, परंतु त्रिपुरदास जी का नाम नहीं लिया।
.
गोसाईं श्री विट्ठलनाथ जी ने कहा कि मैंने भक्त त्रिपुरदास का नाम नहीं सुना,
.
क्या इस वर्ष इनके यहाँ से पोशाक नहीं आयी है ?
.
सेवक ने कहा उनका सब धन नष्ट हो गया है, अतः उनके यहाँ से मोठे कपड़े का एक थान आया है,
.
मैंने उसे और पोशाकों के नीचे रख दिया है।
.
श्री गोसाईंजी ठाकुर जी के मन की बात जान गये की प्रेम-प्रवीण प्रभु तो भक्तों के भाव को देख कर उनके प्रेमोपहार को सहर्ष स्वीकार करते है,
.
आज्ञा दी कि उस कपडे को शीघ्र लाओ।
.
सेवक अनमना-सा होकर उस कपडे को ले आया।
.
तुरंत ही श्रीठाकुरजी के दर्जी को बुला कर उस कपडे को नाप-साध कर कटवा कर अँगरखा सिलाया गया।
.
श्री गोसाईंजी ने तुरंत उस अंगरखे को श्रीठाकुर जी के श्रीअंग में धारण कराया,
.
तब श्रीठाकुर जी ने बड़े भावमें भरकर कहा की अब हमारा जाड़ा (ठण्डक) दूर हो गया है।
.
भक्तवत्सल भगवान की जय
श्री गिरिराज धरण की जय
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
सभी स्नेही मानसप्रेमी साधकजनों को हमारी स्नेहमयी राम राम | जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 116से आगे ..... चौपाई : सुनहु...
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
राधे राधे ।