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सच्चा एकान्त

सच्चा एकान्त

वस्तुतः बाहरी एकान्त का महत्त्व नहीं; सच्चा एकान्त तो वह है, जिसमें एक प्रभु को छोड़कर चित्त के अंदर और कोई कभी आये ही नहीं-शोक-विषाद, इच्छा-कामना आदि की तो बात ही क्या, मोक्षसुख भी जिस एकान्त में आकर बाधा न डाल सके।जबतक चित्त में नाना प्रकार के विषयों का चिन्तन होता है, तब तक एकान्त और मौन दोनों ही बाह्म हैं और महत्व भी उतना ही है, जितना केवल बाहरी दिखावे के लिये होने वाले कार्यो का होता है। उन प्रेमी महापुरूषों को धन्य है जो एकमात्र श्रीकृष्ण के ही रंग में पूर्ण रूप् से रँग गये हैं, जिनका चित्त जगत के विनाशी सुखों की भूलकर भी खोज नहीं करता, जिनकी चित्त वृत्ति संसार के ऊँचे-से-ऊँचे प्रलोभन की ओर भी कभी दृष्टि नहीं डालती, जिनकी आँखें सर्वत्र प्रियतम श्यामसुन्दर के दिव्य स्वरूप को देखती हैं और जिनकी सारी इन्द्रियाँ सदा केवल उन्हीं का अनुभव करती हैं। सच्चा एकान्तवास और सच्चा मौन उन्हीं प्रेमी महात्माओं में है।
जय जय श्यामाश्याम ।

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