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जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम
श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 111से आगे .....
चौपाई :
कबहुँ कि दुख सब कर हित ताकें। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें।।
परद्रोही की होहिं निसंका। कामी पुनि कि रहहिं अकलंका।।
बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें। कर्म कि होहिं स्वरुपहिं चीन्हें।।
काहू सुमति कि खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी।।
भव कि परहिं परमात्मा बिंदक। सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिंदक।।
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें।।
पावन जस कि पुन्य होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई।।
लाभु कि किछु हरि भगति समाना। जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना।।
हानि कि जग एहि सम किछु भाई। भजिअ न रामहि नर तनु पाई।।
अघ कि पिसुनता सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना।।
एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ। मुनि उपदेस न सादर सुनऊँ।।
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा।।
मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि। उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि।।
सत्य बचन बिस्वास न करही। बायस इव सबही ते डरही।।
सठ स्वपच्छ तव हृदयँ बिसाला। सपदि होहि पच्छी चंडाला।।
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई। नहिं कछु भय न दीनता आई।।
भावार्थ: सबका हित चाहने से क्या कभी दुःख हो सकता है ? जिसके पास पारसमणि है, उसके पास क्या दरिद्रता रह सकती है ? दूसरे से द्रोह करनेवाले क्या निर्भय हो सकते हैं ? और कामी क्या कलंकरहित (बेदाग) रह सकते हैं ?।।ब्राह्मण का बुरा करने से क्या वंश रह सकता है ? स्वरूपकी पहिचान (आत्मज्ञान) होने पर क्या [आसक्तिपूर्वक] कर्म हो सकते हैं ? दुष्टोंके संगसे क्या किसीके सुबुद्धि उत्पन्न हुई है ? परस्त्रीगामी क्या उत्तम गति पा सकता है ?।।परमात्मा को जानने वाले कहीं जन्म-मरण [के चक्कर] में पड़ सकते हैं ? भगवान् की निन्दा करनेवाले कभी सुखी हो सकते हैं ? नीति बिना जाने क्या राज्य रह सकता है ? श्रीहरिके चरित्र वर्णन करनेपर क्या पाप रह सकते हैं ?।।बिना पुण्य के क्या पवित्र यश [प्राप्त] हो सकता है ? बिना पापके भी क्या कोई अपयश पा सकता है ? जिसकी महिमा वंद संत और पुराण गाते हैं उस हरि-भक्ति के समान क्या कोई दूसरा भी है ?।।हे भाई ! जगत् में क्या इसके समान दूसरी भी कोई हानि है कि मनुष्य का शरीर पाकर भी श्रीरामजीका भजन न किया जाय ? चुगलखोरी के समान क्या कोई दूसरा पाप है ? और हे गरुड़जी ! दया के समान क्या कोई दूसरा धर्म है ?।।इस प्रकार मैं अनगिनत युक्तियाँ मन में विचारता था और आदर के साथ मुनिका उपदेश नहीं सुनता था। जब मैंने बार-बार सगुण का पक्ष स्थापित किया, तब मुनि क्रोधयुक्त वचन बोले-।।अरे मूढ़ ! मैं तुझे सर्वोत्तम शिक्षा देता हूँ, तू भी तो उसे हीं मानता और बहुत-से उत्तर प्रत्युत्तर (दलीलें) लाकर रखता है। मेरे सत्य वचन पर विस्वास नहीं करता ! कौए की भाँति सभी से डरता है।।अरे मूर्ख ! तेरे हृदय में अपने पक्ष का बड़ा भारी हठ है अतः तू शीघ्र चाण्डाल पक्षी (कौआ) हो जा। मैंने आनन्द के साथ मुनि के श्राप को सिर पर चढ़ा लिया। उससे मुझे न कुछ भय हुआ, न दीनता ही आयी।।
दोहा :
तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ।।
सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ।।112क।।
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।।112ख।।
भावार्थ: तब मैं तुरन्त ही कौआ हो गया। फिर मुनि के चरणों में सिर नवाकर और रघुकुलशिरोमणि श्रीरामजीका स्मरण करके मैं हर्षित होकर उड़ चला।।[शिव जी कहते है-] हे उमा ! जो श्रीहरिके चरणों के प्रेमी हैं, और काम, अभिमान तथा क्रोध से रहित हैं, वे जगत् को अपने प्रभु से भरा हुआ देखते हैं, फिर वे किससे वैर करें।।112(क -ख)।।
शेष अगली पोस्ट में....
गोस्वामी तुलसीदासरचित श्रीरामचरितमानस, उत्तरकाण्ड, दोहा संख्या 112, टीकाकार श्रद्धेय भाई श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार, पुस्तक कोड-81, गीताप्रेस गोरखपुर
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राधे राधे ।