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जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम
श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 112से आगे .....
चौपाई :
सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन। उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन।।
कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी। लीन्ही प्रेम परिच्छा मोरी।।
मन बच क्रम मोहि जन जाना। मुनि मति पुनि फेरी भगवाना।।
रिषि मम महत सीलता देखी। राम चरन बिस्वास बिसेषी।।
अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई। सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई।।
मम परितोष बिबिधि बिधि कीन्हा। हरषित राममंत्र तब दीन्हा।।
बालकरूप राम कर ध्याना। कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना।।
सुंदर सुखद मोहि अति भावा। सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा।।
मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा। रामचरितमानस तब भाषा।।
सादर मोहि यह कथा सुनाई। पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई।।
रामचरित सर गुप्त सुहावा। संभु प्रसाद तात मैं पावा।।
तोहि निज भगत राम कर जानी। ताते मैं सब कहेउँ बखानी।।
राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं। कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह पाहीं।।
मुनि मोहि बिबिधि भाँति समुझावा। मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा।।
निज कर कमल परसि मम सीसा। हषित आसिष दीन्ह मुनीसा।।
राम भगति अबिरल उर तोरें। बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें।।
भावार्थ: [काकभुशुण्डिजीने कहा-] हे पक्षिराज गरुड़जी ! सुनिये, इसमें ऋषिका कुछ भी दोष नहीं था। रघुवंशके विभूषण श्रीरामजी ही सबके हृदय में प्रेरणा करनेवाले हैं। कृपासागर प्रभु ने मुनिकी बुद्धिको भोली करके (भुलावा देकर) मेरे प्रेम की परीक्षा ली।।मन, वचन और कर्म से जब प्रभु ने मुझे अपना दास जान लिया तब भगवान् ने मुनि की बुद्धि फिर से पलट दी। ऋषिने मेरा महान् पुरुषोंको-सा स्वभाव (धैर्य, अक्रोध विनय आदि) और श्रीरामजीके चरणोंमें विशेष विश्वास देखा ।।तब मुनि ने बहुत दुःख के साथ बार-बार पछताकर मुझे आदरपूर्वक बुला लिया। उन्होंने अनेकों प्रकार से मेरा सन्तोष किया और तब हर्षित होकर मुझे राम मन्त्र दिया ।।कृपानिधान मुनि ने मुझे बालकरूप श्रीरामजीका ध्यान (ध्यान की विधि) बतलाया। सुन्दर और सुख देनेवाला यह ध्यान मुझे बहुत ही अच्छा लगा। वह ध्यान मैं आपको पहले ही सुना चुका हूँ।।मुनि ने कुछ समय तक मुझको वहाँ (अपने पास) रक्खा। तब उन्होंने रामचरित मानस वर्णन किया। आदरपूर्वक मुझे यह कथा सुनाकर फिर मुनि मुझसे सुन्दर वाणी बोले।।
हे तात ! यह सुन्दर और गुप्त रामचरितमानस मैंने शिवजी की कृपा से पाया था। तुम्हें श्रीरामजी का ‘निज भक्त’ जाना, इसीसे मैंने तुमसे सब चरित्र विस्तार के साथ कहा।।हे तात ! जिनके हृदय में श्रीरामजी का भक्ति नहीं है, उनके सामने इसे कभी नहीं कहना चाहिये। मुनि ने मुझे बहुत प्रकार से समझाया। तब मैंने प्रेम के साथ मुनि के चरणों में सिर नवाया।।मुनीश्वर ने अपने कर-कमलोंसे मेरा सिर स्पर्श करके हर्षित होकर आशीर्वाद दिया कि अब मेरी कृपासे तेरे हृदय में सदा प्रगाढ़ राम-भक्ति बसेगी।।
दोहा :
सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान।
कामरूप इच्छामरन ग्यान बिराग निधान।।113क।।
जेहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत।
ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत।।113ख।।
भावार्थ: तुम सदा श्रीरामजीको प्रिय होओ और कल्याण रूप गुणोंके धाम, मानरहित इच्छानुसार रूप धारण करनेमें समर्थ, इच्छामृत्यु (जिसकी शरीर छोड़नेकी इच्छा करने पर ही मृत्यु हो, बिना इच्छाके मृत्यु न हो), एवं ज्ञान और वैराग्य के भण्डार होओ।।इतना ही नहीं, श्रीभगवान् को स्मरण करते हुए तुम जिस आश्रम में निवास करोगे वहाँ एक योजन (चार कोस) तक अविद्या (माया-मोह) नहीं व्यापेगी।।113(क -ख)।।
शेष अगली पोस्ट में....
गोस्वामी तुलसीदासरचित श्रीरामचरितमानस, उत्तरकाण्ड, दोहा संख्या 113, टीकाकार श्रद्धेय भाई श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार, पुस्तक कोड-81, गीताप्रेस गोरखपुर
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राधे राधे ।