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जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम
श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 114से आगे .....
चौपाई :
जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं।।
ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी।।
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई।।
ते सठ महासिंधु बिनु तरनी। पैरि पार चाहहिं जड़ करनी।।
सुनि भसुंडि के बचन भवानी। बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी।।
तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीं।।
सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा। तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा।।
एक बात प्रभु पूँछउँ तोही। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही।।
कहहिं संत मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना।।
सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं। नहिं आदरेहु भगति की नाईं।।
ग्यानहि भगतिहि अंतर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता।।
सुनि उरगारि बचन सुख माना। सादर बोलेउ काग सुजाना।।
भगतिहि ग्यानहिं नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा।।
नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर। सावधान सोउ सुनु बिहंगब।।
ग्यान बिराग जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना।।
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती।।
भावार्थ: जो भक्ति की ऐसी महिमा जानकर भी उसे छोड़ देते हैं और केवल ज्ञान के लिये श्रम (साधन) करते हैं, वे मूर्ख घर पर पड़ी हुई कामधेनु को छोड़कर दूध के लिये मदार के पेड़ को खोजते फिरते हैं।। हे पक्षिराज ! सुनिये, जो लोग श्री हरिकी भक्ति छोड़कर दूसरे उपायों से सुख चाहते हैं, वे मूर्ख और जड़ करनीवाले (अभागे) बिना ही जहाजके तैरकर महासमुद्र के पार जाना चाहते हैं।। [शिव जी कहते हैं] हे भवानी ! भुशुण्डिके वचन सुनकर गरुड़जी हर्षित होकर कोमल वाणीसे बोले-हे प्रभो ! आपके प्रसादसे मेरे हृदय में अब सन्देह, शोक, मोह और भ्रम कुछ भी नहीं रह गया।। मैंने आपकी कृपा से श्रीरामचन्द्रजीके पवित्र गुणों समूहों को सुना और शान्ति प्राप्त की। हे प्रभो ! अब मैं आपसे एक बात और पूछता हूँ, हे कृपासागर ! मुझे समझाकर कहिये।। संत मुनि वेद और पुराण यह कहते हैं कि ज्ञान के समान दुर्लभ कुछ भी नहीं है। हे गोसाईं ! वही ज्ञान मुनिने आपसे कहा; परंतु आपने भक्तिके समान उसका आदर नहीं किया।। हे कृपा धाम ! हे प्रभो ! ज्ञान और भक्तिमें कितना अन्तर है ? यह सब मुझसे कहिये। गरुड़जी के वचन सुनकर सुजान काकभुशुण्डिजीने सुख माना और आदरके साथ कहा-।। भक्ति और ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं है। दोनों ही संसार से उत्पन्न क्लेशों को हर लेते हैं। हे नाथ ! मुनीश्वर इसमें कुछ अंतर बतलाते हैं। हे पक्षिश्रेष्ठ ! उसे सावधान होकर सुनिये।। हे हरिवाहन ! सुनिये; ज्ञान, वैराग्य, योग, विज्ञान-ये सब पुरुष हैं; पुरुषका प्रताप सब प्रकार से प्रबल होता है। अबला (माया) स्वाभाविक ही निर्बल और जाति (जन्म) से ही जड़ (मूर्ख) होती है।।
दोहा :
पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर।।
न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर।।115क।।
सोरठा:
सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि।
बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट।।115ख।।
भावार्थ: परंतु जो वैराग्यवान् और धीरबुद्धि पुरुष हैं वही स्त्री को त्याग सकते हैं, न कि वे कामी पुरुष जो विषयों के वश में है। (उनके गुलाम हैं) और श्रीरघुवीरके चरणों से विमुख हैं।। वे ज्ञान के भण्डार मुनि भी मृगनयनी (युवती स्त्री) के चन्द्रमुखको देखकर विवश (उसके अधीन) हो जाते हैं। हे गरुड़जी ! साक्षात् भगवान् विष्णुकी की माया ही स्त्रीरूप से प्रकट है।।115(क-ख)।।
शेष अगली पोस्ट में....
गोस्वामी तुलसीदासरचित श्रीरामचरितमानस, उत्तरकाण्ड, दोहा संख्या 115, टीकाकार श्रद्धेय भाई श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार, पुस्तक कोड-81, गीताप्रेस गोरखपुर
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राधे राधे ।