राधे राधे..
प्रवचन सारांश : प्रथम एवं द्वितीय दिवस
(9 से 23 सितंबर, शुभ-लाभ पार्टी पैलेस, ललितपुर, नेपाल)
प्रवचन विषय : 'मानव देह और उसकी महिमा'
जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज की कृपाप्राप्त प्रचारिका सुश्री गोपिकेश्वरी देवी जी के सान्निध्य में चल रहे प्रवचन श्रृंखला के प्रथम दो दिन सुश्री देवी जी ने 'मानव देह' के महत्त्व पर विशद् प्रकाश डाला. आइये इस प्रवचन के सारांश को गद्य रुप में आत्मसात करें.
श्वेताश्वतरोपनिषद् का एक मन्त्र है, तीसरे अध्याय का आठवाँ वेदमंत्र. क्या कहता है यह वेदमंत्र?
'तमेव विदित्वादि मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेयनाय'
(श्वेताश्वतरोपनिषद् 3-8)
क्या मतलब? मतलब यह कह रहा है कि उसको जानकर ही यह इससे उत्तीर्ण हो सकता है. अन्य कोई मार्ग नहीं है.
तो किसको जानकर? और ये 'यह' कौन है और 'इससे' माने किससे उत्तीर्ण हो जायेगा?
उसको यानी भगवान् को जानकर ही, यह माने जीव यानी की हम लोग सब मायाधीन जितने हैं और इससे यानी माया से उत्तीर्ण होंगे. भगवान् को जानने यानी प्राप्त करने के सिवाय हमारे पास और कोई दूसरा मार्ग या विकल्प नहीं है जिससे हम माया के आवरण को मिटा पायें. दूसरे शब्दों में तमाम दुःखों से छुटकारा पा सकें.
ब्रम्ह अनादि है, जीव अनादि है और जीव पर हावी माया भी अनादि है और अनादिकाल से हावी है. मायाधीन हम सब लोग अनंतकाल से केवल दो प्रश्नों का उत्तर जान लेना चाहते हैं. कौन से दो प्रश्न? पहला यह कि मैं क्या चाहता हूँ और दूसरा कि वह मुझको कैसे मिलेगा? इसको हल करने के लिए हमने अनंत प्रयत्न किये लेकिन सुलझा नहीं सके. इसके सुलझते ही हमारी सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी.
हमको अभी मानव शरीर प्राप्त है. इससे पूर्व भी हमको अनंत बार मानव देह प्राप्त हो चुका है. मानव देह के अलावा चौरासी लाख योनियों में भी हम अनंत बार घूम चुके हैं. ये जो दो प्रश्नों को हल करने की जो बात कही जा रही है, सौभाग्य से यह जिस एकमात्र देह में हल हो सकता है, वह आज हमको प्राप्त है अर्थात् मानव देह. मानव देह ही एक ऐसा देह है जिसमें इन दो प्रश्नों को हल करने का सौभाग्य प्रदान किया गया है.
भगवान् ने दो प्रकार के देहों की रचना की है. एक प्रकार का देह है केवल भोगप्रधान. और दूसरे प्रकार का देह है भोग प्लस कर्मप्रधान. भोगप्रधान देह क्या है? इस देह में केवल पूर्व जन्म के शुभाशुभ कर्मों के फलों को भोगा जाता है. कुछ नया कर्म नहीं कर सकते. करेंगे भी तो उसका फल नहीं मिलेगा. और दूसरा है भोग प्लस कर्मप्रधान. इसमें भी पूर्व जन्म के कर्मफलों को भोगा जाता है और नया कर्म यानी पुरुषार्थ करने का भी अवसर प्राप्त रहता है. मानव देह को छोड़कर अन्य समस्त देह, चींटी, कुत्ते, बिल्ली, हाथी से लेकर इंद्रादिक तक की देह केवल भोगप्रधान है. वे केवल कर्मफलों का भोग करने देह प्राप्त करते हैं. मनुष्य ही नया कर्म कर सकने का एकमात्र अधिकारी है.
मानव देह की महिमा की यह प्रथम दृष्टि है. दूसरी दृष्टि से देखते हैं कि मानव देह से हम क्या प्राप्त कर सकते हैं? जो अन्य देह से नहीं कर सकते. गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा -
'नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी, ज्ञान विराग भक्ति सुख देनी'
नरक प्राप्त कर सकते हैं !! आश्चर्य !! ऐसा क्यों कहा? थोडा आगे जाकर जानेंगे. चार चीजें कही तुलसीदास जी ने. नरक, स्वर्ग, मोक्ष और भक्ति. इसमें सबसे बड़ी चीज है भक्ति. भक्ति यानी कि भगवान् को प्राप्त कर सकते हैं इस मानव देह से. हाँ. ये चारों चीजें पुरुषार्थ से ही मिलती हैं. मनुष्य जैसा पुरुषार्थ यानी कर्म कर ले. भक्ति के लिए कर्म यानी प्रयत्न करेगा, जिसको साधना कहा जाता है तो भगवान् को प्राप्त कर लेगा. मोक्ष प्राप्त करना चाहेगा तो मोक्ष पा सकता है. स्वर्ग के लिए वेदादिकविहित कर्मकाण्ड करेगा तो स्वर्ग प्राप्त कर लेगा. और अगर इन 3 के निमित्त प्रयत्न नहीं किया तो स्वाभाविक ही वह संसारासक्त होगा और वेद-निषिद्ध कर्मलिप्त होकर नरकगामी बनेगा. तो इसलिए तुलसीदास जी ने चारों चीजें कही. सारांश में और हमारे काम की बात यह कि मानव देह से भगवत्प्राप्ति हो सकती है.
भगवान् यह मानव देह देते क्यों हैं? कभी हमको एकांत में सोचना चाहिए. कैसे मिलता है यह देह? मानस में कहा -
'कबहुँक करि करुणा नर देही, देत ईश बिनु हेतु सनेही'
'कबहुँक' कहा तुलसीदास जी ने, यानि कभी कभी देते हैं, बार बार नहीं देते !! और आगे कहा, 'करि करुणा' और 'बिनु हेतु सनेही'. यानी बिना कारण के करुणा करके देते हैं. और कितने अंतराल में देते हैं? कठोपनिषद् ने कहा, 'ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते', 'सर्गेषु' याने करोड़ों करोड़ों जन्मों में कभी ही. 84 लाख योनियों में दुःख भोगते जीव को बीच में ही दया करके भगवान् मानव देह दे देते हैं कि अब तू इस देह से भक्ति करके मुझको प्राप्त कर ले और समस्त दुःखों से मुक्त हो जा. जीव जब माँ के गर्भ में रहता है, तब उसे अपने पूर्व जन्मों के कर्मों का स्मरण रहता है. माँ के गर्भ में उल्टा लटका मल-मूत्र की थैली में जीव अपार कष्ट पाटा है, तब वह भगवान् से पुकार करता है कि मुझे इस नर्क से बाहर निकाल दीजिये. भगवान् उसे गर्भ में दर्शन देते हैं और तब जीव भगवान् को वचन देता है कि मैं गर्भ से बाहर निकालकर इस जन्म ने आपकी ही भक्ति करूँगा और आपको प्राप्त करूँगा. हम सबने किया है ये वादा लेकिन???
'गर्भ में किये थे वादे गोविंद राधे, भक्ति ही करूँगा किन्तु भूल गये वादे..'
'राधा गोविन्द गीत' में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज लिखते हैं कि हमने गर्भ से बाहर आकर भगवान् से किया वह वादा भुला दिया. संसार की चकाचौंध की गिरफ्त में हम ऐसे फँसे कि सब कुछ भूल गए. भगवान् हमको बारम्बार संतों के द्वारा, शास्त्रों के द्वारा हमारा वादा याद दिलाते हैं लेकिन हमको फुर्सत ही नहीं है.
मानव देह को पाकर हम क्या कर रहे हैं? हमारा लक्ष्य होना था भक्ति, लेकिन हमने संसार को ही अपना लक्ष्य मान लिया है. संसार मिले बस, उसके लिए तमाम तरकीबें, 420, झूठ, फरेब, जालसाजी, भ्रष्टाचार, लूट, डकैती, मारपीट, मर्डर और न जाने कितने ही पाप हम दिन रात कर रहे हैं. परिणाम की कोई चिंता ही नहीं है. संत शास्त्र और भगवान् की बातों को झूठा और मनगढ़ंत मानकर मनमाना कर्म करते हैं. कितने लोग होंगे इस पृथ्वी पर जो इसके वास्तविक महत्त्व को मानकर उसके लिए प्रयास कर रहे हैं. भक्ति के लिए सबने उधार ही किया हुआ है. 'अजी कर लेंगे भक्ति, अभी हमारी उम्र ही क्या है? अभी तो हमारी खेलने कूदने की उम्र है. अभी पढ़ने लिखने की उम्र है. अभी जरा विवाह हो जाये, अब जरा बच्चे कच्चे हो जाएँ.' वे भी हो गए तो उनको पढ़ाओ लिखाओ. पढ़ लिख गए तो उनकी शादी. शादी से उनके बच्चे भी हो गए तब तक हमारा बुढ़ापा आ जाता है, फिर तो अपने नाती पोतों में ही हम मगन हो जाते हैं. किसी वृद्ध से कहो कि अब क्यों नहीं करते भक्ति? तो अपने नाती पोतों को चिपटाये कहते हैं 'यही तो हैं हमारे बाल गोपाल'.
बुढ़ापे में कोई भक्ति करेगा भी कैसे? किससे करेगा? शरीर तो वैसे ही कृशकाय/शिथिल हो जाता है. इन्द्रियाँ ठीक से काम नहीं करती. न आँख से ठीक दीखता है, न कान से सुनाई देता है. क्या भजन-कीर्तन और सेवा आदि करेंगे बुढ़ापे में जाकर? और फिर क्या ही भरोसा है कि हम बुढ़ापे तक जिन्दा रहे ही. देख तो रहे हैं कि एक 10 साल में मर गया, एक में 20 में , एक 40 में चल बसा. क्षणभंगुर है यह देह. कब छिनेगी किसी को पता नहीं है. तो समझदार तो वही है जो इसके महत्त्व को जान ले, मान ले और एक क्षण भी व्यर्थ में न गँवायें. क्योंकि एक बार छिनी तो बहुत बड़ी हानि हो जायेगी. कठोपनिषद् कहता है -
'इह चेदशकद् बोद्धुम् प्राक् शरीरस्य विस्त्रसः।
ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ।।'
(कठोपनिषद् 2-3-4)
पुनः पुनः 84 लाख का चक्कर लगाना होगा. इसलिए समय रहते जागना है.
'उत्तिष्ठत् जाग्रत प्राप्यवरान्निबोधत्'
वेद कहता है कि उठो जीव ! जागो ! और महापुरुषों से अपने लक्ष्य को जानों और बिना देर किये ही उसके लिए प्रयत्नशील हो जाओ.
'नर तनु सम नहि कवनिउ देही, जीव चराचर याचत जेही'
जिसकी समस्त चर-अचर यहाँ तक कि स्वर्ग का राजा इंद्र भी याचना करता है, वह 'सुरदुर्लभ सद्ग्रंथनि गावा', समस्त संत-शास्त्रों के द्वारा महिमामंडित मानव देह हमको प्राप्त है. हमको अवश्य ही इसकी सार्थकता के लिए प्रयत्न करना चाहिए.
शेष अगले प्रवचन में............
वृन्दावन बिहारी लाल की जय.... श्रीमत्सदगुरु सरकार की जय...
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# श्री कृपालु भक्तिधारा प्रचार समिति
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