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🌿🌷 - प्रेम रस सिद्धान्त - 🌷🌿
🌿🌸 - ईश्वर प्राप्ति का उपाय - 🌸🌿
🌳🌹❗- ज्ञान योग -❗🌹🌳
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गतांक से आगे.......
सम्पूर्ण गीता में केवल एक स्थल पर भगवान् ने कहा कि मैं दिव्य हूँ किन्तु अनन्य-भक्ति द्वारा मुझे कोई भी देख सकता है, कोई भी जान सकता है, कोई भी प्रविष्ट हो सकता है। यथा -
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवं विधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ॥ ( गी० ११-५४ )
सम्पूर्ण गीता में केवल एक स्थल पर भगवान् ने प्रतिज्ञा पूर्वक चुनौती दी है, यथा -
कौन्तेय प्रतिजानिहि न मे भक्त: प्रणश्यति ।
अर्थात् हे अर्जुन ! मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि मेरे भक्त का पतन नहीं हो सकता । अन्य केवल ज्ञानी या केवल कर्मी का मैं ठेका नहीं लेता ।
पुन: गीता में भगवान् कहते हैं -
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥ ( गी० १२-६ )
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥ ( गी० १२-७ )
अर्थात् सब कर्मादि को मेरे में समर्पित करके अनन्यभाव से जो मेरी उपासना करता है, उसको संसार से तारने का मैं ठेका लेता हूँ । पुन: सम्पूर्ण गीता में सम्पूर्ण ठेकेदारी का निरूपण एक स्थल पर करते हैं, यथा -
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ ( गी० ९-२२ )
अर्थात् जो अनन्य-भाव से एक मात्र मेरी भक्ति करते हैं, ऐसे नित्ययुक्त भक्तों के योगक्षेम को मैं स्वयं वहन करता हूँ अर्थात् अप्राप्त को देना एवं प्राप्त की रक्षा करना, यह मैं स्वयं करता हूँ ।
सम्पूर्ण गीता में एक स्थल पर अपने को पक्षपाती सिद्ध किया है -
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय: ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥ ( गी० ९-२९ )
अर्थात् अर्जुन! वैसे तो मैं सब के लिये समदर्शी ही हूँ, न कोई मेरा मित्र है और न शत्रु है, फिर भी जो मेरे भक्त हैं उनमें में नित्य निवास करता हूँ । भावार्थ यह कि उनको मैं कृपा द्वारा सदा संभाले रहता हूँ ।
सम्पूर्ण गीता में पुन: एक ही स्थल पर भगवान् कहते हैं -
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । ( गी० ४-११ )
अर्थात् भोले लोग समझते हैं कि मैं आत्माराम पूर्णकाम हूँ अतएव कुछ नहीं करता । यद्यपि जनसाधारण के लिये यह ठीक है, किन्तु यदि कोई मेरी शरण में आता है तो मैं उसकी सेवा करता हूँ । जैसे नवजात शिशु की सेवा माँ करती है वैसे ही मैं शरणागत का भजन करता हूँ । आपकी यदि यह विश्वास हो जाय कि भगवान् हम नगण्य जीवों का भजन केवल शरणागति मात्र से ही करते हैं तो तत्क्षण आप शरणागत हो जायें ।
पुन: सम्पूर्ण गीता में एक स्थल पर भगवान् ने कहा कि -
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ॥ ( गी० १८-६६ )
हे अर्जुन ! शरणागत होने के पश्चात् तुझे अपने अनन्तानन्त जन्मों के या वर्तमान या भविष्य के पापों पर कुछ सोच-विचार नहीं करना है क्योंकि शरणागति के क्षण से तो मैं ही संचालक संरक्षक बना रहूँगा एवं पिछले अनन्त जन्मों के पापों को भी मैं क्षमा कर दूँगा, तू चिन्ता न कर । अर्थात् शरणागति के पश्चात् भक्त को भगवान् त्रिकाल के लिए निश्चिन्त कर देते हैं । पुन: सम्पूर्ण गीता में एक स्थल पर कहा है -
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥ ( गी० १०-१० )
अर्थात् जो निरन्तर मेरी भक्ति करते हैं, उन्हें मैं अपनी कृपा से वह दिव्य ज्ञान देता हूँ जिससे वे सहज में ही सब कुछ जान लेते हैं ।
सम्पूर्ण गीता में एक ही स्थल पर भगवान् ने यहाँ तक कहा है कि -
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मंतव्य: सम्यक् व्यवसितो हि स: ॥ ( गी० ९-३० )
अर्थात् देखने में घोर दुराचारी भी यदि मेरी अनन्य भक्ति करता है तो वह महात्मा ही मानने योग्य है क्योंकि उसने मुझे समझ लिया है । इसी आधार पर तो सुग्रीव, विभीषण आदि के देखने में दुष्कर्म को भगवान् ने देखा ही नहीं ।
सम्पूर्ण गीता में एक ही स्थल पर भगवान् ने सबसे अन्तरंग से अन्तरंग बात कही है, यथा -
सर्वगुह्यतमं भूय: शृणु में परमं वच: ।
इष्टोऽसि मे दृढ़मिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥ ( गी० १८-६४ )
अर्जुन ! तू मेरा प्रिय है अतएव मैं तुझे गुप्त से गुप्त बात सुनाता हूँ, इतनी गुप्त बात सबसे नहीं कही जाती । वह गुप्त बात क्या थी ?
मनमनाभव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥ ( गी० १८-६३ )
अर्थात् अर्जुन ! तू निरन्तर मेरे ही में मन लगाये रह, मेरी ही भक्ति कर, तो मेरे ही भीतर निवास करेगा और सदा आनन्दमय रहेगा ।
अब आप गीता के द्वारा भली-भाँति समझ गये होंगे कि बिना भक्ति के ज्ञान द्वारा कदापि परमानन्द-प्राप्ति का लक्ष्य हल नहीं हो सकता । अतएव निर्गुण-निराकार-निर्विशेष ब्रह्म की अभेदोपासना का नाम ही ज्ञानयोग है एवं सगुण-सविशेष-साकार भगवान् की भेद-भक्ति का नाम ही भक्तियोग है । इन दोनों को ही कृतार्थ कहा गया है क्योंकि दोनों ही ईश्वर-भक्ति करते हैं ।
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---- भक्तियोगरसावतार जगद्गुरू श्री कृृपालु महाराज जी के प्रवचन श्रृंखला पर आधारित 'प्रेमरस सिद्धान्त' ग्रन्थ से ।
क्रमशः 5⃣
(प्रस्तुति आभार : गायत्री जी, गोलोक ग्रुप-122)
🌷"श्री राधे"🌷
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