II सीताराम II
गोस्वामी तुलसीदासजी विरचित
" जानकी मंगल "
(गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)
पोस्ट संख्या - २५
मंगल भूषन बसन मंजु मन सोहहिं ।
देखि मूढ़ महिपाल मोह बस मोहहिं ।।८१।।
रूप रासि जेहि ओर सुभायँ निहारइ ।
नील कमल सर श्रेनि मयन जनु डारइ ।।८२।।
जानकीजीके सुन्दर शरीरमें मंगलमय (विवाहोचित) वस्त्र और आभूषण सुशोभित हैं । उन्हें देखकर मूर्ख राजालोग मोहवश मोहित हो जाते हैं ।८१। रूपकी राशि श्रीजानकीजी जिस ओर स्वभावसे ही निहारती हैं, उसी ओर मानो कामदेव नील कमलके बाणोंकी झड़ी लगा देता है ।८२।
छिनु सीतहि छिनु रामहि पुरजन देखहिं ।
रूप सील बय बंस बिसेष बिसेषहिं ।।८३।।
राम दीख जब सीय सीय रघुनायक ।
दोउ तन तकि तकि मयन सुधारत सायक ।।८४।।
पुरवासीलोग एक क्षण जानकीजीको और दुसरे क्षण श्रीरामचन्द्रजीको निहारते हैं । वे उनके रूप, शील, अवस्था और वंशकी विशेषताका विशेषरूपसे वर्णन करते हैं ।८३। जब श्रीरामचन्द्रजीको जानकीजीने और जानकीजीको श्रीरामचन्द्रजीने देखा, तब दोनोंकी ओर देख-देखकर कामदेव अपने बाण सुधरने लगा ।८४।
प्रेम प्रमोद परस्पर प्रगटत गोपहिं ।
जनु हिरदय गुन ग्राम थूनि थिर रोपहिं ।।८५।।
राम सीय बय समौ सुभाय सुहावन ।
नृप जोबन छबि पुरइ चहत जनु आवन ।।८६।।
श्रीरामचन्द्रजी और जानकीजी परस्पर प्रकट होते हुए प्रेमानन्दको छिपाते है, मानो वे अपने हृदयमें एक दूसरेके गुण-गणरूपी स्तम्भको स्थिरतापूर्वक गाड़ते हैं ।८५। श्रीरामचन्द्रजी और जानकीजीकी अवस्थाका समय भी स्वभावसे ही शोभायमान है, मानो इस समय यौवनरूपी राजा छबिरूपी नगरमें प्रवेश करना चाहता है ।८६। .......................... क्रमशः
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राधे राधे ।