II सीताराम II
गोस्वामी तुलसीदासजी विरचित
" जानकी मंगल "
(गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)
पोस्ट संख्या - २४
सुनि जिय भयउ भरोस रानि हिय हरषइ ।
बहुरि निरखि रघुबरहि प्रेम मन करषइ ।।७९।।
नृप रानी पुर लोग राम तन चितवहिं ।
मंजु मनोरथ कलस भरहीं अरु रितवहिं ।।८०।।
यह सुनकर रानीके जीमें भरोसा आया और वे हर्षित हो गयीं । फिर उन्होंने रघुनाथजीकी ओर देखा, इससे उनका मन प्रेमसे आकर्षित हो गया ।७९। राजा, रानी और पुरवासीलोग श्रीरामचन्द्रजीकी ओर देख रहे हैं । वे बार-बार मनोहर मनोरथरूपी कलस भरते है और उसे खाली कर देते हैं (अर्थात् आशा और निराशाके झूलेमें झूल रहे है) ।८०।
रितवहिं भरहिं धनु निरखि छिनु-छिनु निरखि रामहि सोचहीं ।
नर नारि हरष बिषाद बस हिय सकल सिवहिं सकोचहीं ।।
तब जनक आयसु पाइ कुलगुर जानकिहि लै आयऊ ।
सिय रूप रासि निहारि लोचन लाहु लोगन्हि पायऊ ।।१०।।
धनुषको देखकर वे क्षण-क्षणमें मनोरथरूपी कलशको भरते और खाली करते हैं और श्रीरामचन्द्रजीको देखकर सोच करते हैं, समस्त स्त्री-पुरुष हर्ष और विषादवश हृदयमें शिवजीको संकुचित करते हैं (अर्थात् प्रार्थना करके उनसे यह मनाते हैं कि रामचन्दजी उन्हींका धनुष तोड्नेमें समर्थ हों) तब महाराज जनककी आज्ञा पाकर कुलगुरु शतानन्दजी जानकीजीको ले आये । उस समय रूपराशि श्रीजानकीजीको देखकर सब लोगोंने नेत्रोंका फल पाया ।।१०।।..... क्रमशः
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राधे राधे ।