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*बैकुण्ठ से भी बढ़कर है ब्रज की महिमा*
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*'अहो भाग्यम्! अहो भाग्यम्।*
*नन्दगोप ब्रजो कसाम, यन्मित्र*
*परमानन्दं पूर्णब्रम्ह सनातनम्।*
*आसामहो चरण रेणु जुषामहं स्यां,*
*वृन्दावने किमपि लतौषधीनाम्।'*
इंद्रदेव स्तुति करते हैं कि:- 'हे भगवन् श्री बलराम और श्रीकृष्ण, आपके जो अति रमणीक स्थान हैं, उनमें हम जाने की इच्छा करते हैं पर जा नहीं सकते।
*'अहो मधुपुरी धन्या वैकुण्ठाच्च गरीयसी।*
*विना कृष्ण प्रसादेन क्षणमेकं न तिष्ठति॥'*
यानी यह मधुपुरी धन्य और वैकुण्ठ से भी श्रेष्ठ है, क्योंकि वैकुण्ठ में तो मनुष्य अपने पुरुषार्थ से पहुँच सकता है पर यहाँ श्रीकृष्ण की आज्ञा के बिना कोई एक क्षण भी नहीं ठहर सकता।
यदुकुल में अवतार लेने वाले, उरुगाय (यानी बहुत प्रकार से गाए जाने वाले) भगवान् कृष्ण का गोलोक नामक वह परम धाम (व्रज) निश्चित ही भू-लोक में प्रकाशित हो रहा है।"
गोपी गीत श्रीमद्भागवतम के दसवें स्कंध के श्रीरासपञ्चाध्यायी का ३१ वां अध्याय है, इसमें गोपियाँ कहतीं हैं :-
*🐚जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि।*
*🐚दयित दृश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते॥१॥*
श्रीमदभागवत जी के गोपी गीत में गोपियाँ कहती हैं कि:- हे श्री कृष्ण जब से आपने इस ब्रजभूमि में जन्म लिया है, तब से इसका महत्तव वैकुण्ठ से भी अधिक बढ़ गया है।
भगवान को ब्रज से बहुत प्रेम है, जो निष्काम बुद्धि में प्रकट होता है, उसे बैकुण्ठ कहते हैं।
सूर्य के प्रकाश में अग्नि है, किन्तु वह अग्नि नहीं उत्पन्न कर सकता, अग्नि तो सूर्यमणि द्वारा उत्पन्न होती है। इसी प्रकार परमात्मा सर्वव्यापक हैं, किन्तु वह निष्काम बुद्धि से ही प्रकट होता है।
बैकुण्ठ में काम नहीं है, किन्तु काम और क्रोध तो रजोगुण हैं, गीता में कहा गया है:- काम एवं क्रोध एवं रजोगुण समुदभवः।
वैकुण्ठ अति दिव्य सत्व प्रधान भूमि है, वहाँ जाने के बाद जीव संसार में नहीं आता।
गोपी कहती हैं कि वैकुण्ठ से भी ब्रज की कक्षा ऊँचीं हो गई है, वैकुण्ठ में परमात्मा राजाधिराज हैं।
यदि कोई वैकुण्ठ में जाये, तो प्रभु का चरण स्पर्श नहीं कर सकता, वहाँ उनकी चरण-सेवा लक्ष्मी करती हैं ।
प्रभु की चरण-पादुका सामने पड़ी होती हैं स्वर्ग में जाने वाला प्रभु का नहीं, बल्कि उनकी चरण पादुका का स्पर्श करता है।
*वैकुण्ठ में ऐश्वर्य है ब्रज में प्रेम है, जहाँ ऐश्वर्य होता है, वहाँ पर्दा होता है, किन्तु ब्रज में कोई पर्दा नहीं है।*
ग्रंथों से पता चलता है कि नारायण निद्राहीन होते हैं और लक्ष्मी जी इनकी चरण सेवा करती हैं।
जब कोई जीव स्वर्ग में पहुँचता है, तब लक्ष्मीजी चरण सेवा करते हुए जोर से चरण दबाती हैं, इसके बाद ठाकुरजी अपनी आँखें थोड़ी सी खोलते हैं और पूछते हैं कि कहो क्या बात है?
उन्हें श्री लक्ष्मीजी बताती हैं कि यह जीव आपकी शरण में आया है, सुनकर परमात्मा कहते हैं कि इसे वैकुण्ठ में रखो, इतना कहकर वह पुनः आँख बंद कर सो जाते हैं।
*वैकुण्ठ में तो ऐश्वर्य है, जहाँ के प्रभु राजाधिराज हैं, लेकिन ब्रज में श्री कृष्ण किसी के बालक हैं, तो किसी के सखा हैं।*
श्री कृष्ण ने ब्रज में रहकर ब्रजवासियों को जो आनन्द दिया है, वह वैकुण्ठ में भी नहीं है।
क्या कोई वैकुण्ठ में नारायण से कहने की हिम्मत कर सकता है कि मेरा यह काम करो।
कन्हैया ब्रज में यदि किसी के घर जाता है तो वह उनसे कहता है:- क्या मैं मक्खन ले जाऊं।
गोपी कहती है:- यदि तुम्हें मक्खन खाना हो, तो मेरा थोड़ा सा काम करो।
यह सुनकर कन्हैया कहता है कि:- तेरा क्या काम करना है?
गोपी कहती हैं:- मेरा वह पीढ़ा (पाटला) ले आओ।
जहाँ प्रेम होता है वहाँ संकोच नहीं होता, यह तो शुद्ध प्रेम-लीला है।
कन्हैया पीढ़ा उठाता तो है, किन्तु भारी होने के कारण उसे उठा नहीं पाता, कन्हैया अत्यंत कोमल शरीर का है।
यूँ तो उसने अपनी तर्जनी ऊँगली पर गोवर्धन को उठा लिया था फिर भी उसे मक्खन का लालच है वह पीढ़ा उठाता तो है, किन्तु वह भारी होने के कारण रास्ते में उसके हाथ से छुट जाता है और उसका पीताम्बर भी खुल जाता है।
पीढ़ा गिरते ही कन्हैया रोने लगता है, गोपी दोड़कर आती है और कहती है:- अरे, तुझे क्या हो गया, क्या कुछ चोट लग गई?
कन्हैया कहता है:- चोट तो नहीं लगी, किन्तु मेरा पीताम्बर खुल गया है।
गोपी लाला को पीताम्बर पहनाती है।
जहाँ ऐश्वर्य होता है, वहाँ पर्दा होता है, प्रेम में पर्दा नहीं होता, कृष्ण ने गोपियों को जो आनन्द दिया वह भला वैकुण्ठ में कहाँ मिल सकता है
जय जय श्री राधे ll
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राधे राधे ।