II सीताराम II
गोस्वामी तुलसीदासजी विरचित
" जानकी मंगल "
(गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)
पोस्ट संख्या - २६
सो छबि जाइ न बरनि देखि मनु मानै ।
सुधा पान करि मूक कि स्वाद बखानै ।।८७।।
तब बिदेह पन बंदिन्ह प्रगट सुनायउ ।
उठे भूप आमरषि सगुन नहिं पायउ ।।८८।।
उस शोभाका वर्णन नहीं किया जा सकता; उसे तो देखनेसे ही मन प्रसन्न होता है । क्या गूँगा अमृत-पान करके उसके स्वादको कह सकता है ? ।८७। तब बंदीजनोंने महाराज जनककी शर्तको स्पष्ट करके सुनाया । उसे सुनकर राजालोग जोशमें आकर उठे, परंतु कोई शकुन नहीं बना ।८८।
नहि सगुन पायउ रहे मिसु करि एक धनु देखन गए ।
टकटोरि कपि ज्यों नारियरु, सिरु नाइ सब बैठत भए ।।
एक करहिं दाप, न चाप सज्जन बचन जिमि टारें टरै ।
नृप नहुष ज्यों सब के बिलोकत बुद्धि बल बरबस हरै ।।११।।
जब राजाओंको शुभ शकुन नहीं मिला, तब वे बहाना बनाकर बैठ गये । उनमेंसे कोई धनुष देखनेके लिये गये और जैसे वानर नारियलको टटोलकर छोड़ देता है, वैसे ही वे सब धनुषको टटोलकर सिर नीचा करके बैठ गये । कोई-कोई बड़े जोशमें आते हैं, परंतु सत्पुरुषोंके वचनोंके समान धनुष टाले नहीं टलता । इस प्रकार राजा नहुषके समान * उनके बुद्धि और बल सबके देखते-देखते बरबस क्षीण हो गए
।।११।। ......................................................... क्रमशः
------------------------------------------------------------------------------------ * जब अपने पुण्यके प्रतापसे राजा नहुषको इन्द्रपद प्राप्त हुआ, तब उसके मदमें उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी । उन्होंने इन्द्राणीको भोगनेकी इच्छा प्रकट की और उसका संदेश पाकर ऋषियोंको शिविकामें जोड़कर चले । उनमें इस प्रकारके अनौचित्यका विचार करनेकी भी बुद्धि न रही । अन्तमें अगस्त्य ऋषिके शापसे वे तत्काल अजगर हो गए ।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
राधे राधे ।